आवारगी नसीब के सब ज़ावियों में थी
आवारगी नसीब के सब ज़ावियों में थी मंज़िल क़दम के नीचे थी , मैं रास्तों में थी जिस को लहू से सींचा था वो शाख़-ए-बासमर हमसाए के मकान की अंगनाइयों में थी हस्ती तमाम जलती रही जिस में उम्र भर दोज़ख़ की आग रूह की गहराइयों में थी माना कि टूट टूट के बिखरी तो ये भी है शामिल तो ज़िन्दगी भी मगर साज़िशों में थी वहशत में जज़्ब होती गईं सारी मस्तियाँ अब वो कशिश कहाँ जो कभी बारिशों में थी क़ातिल की आँख में भी थी दहशत की इक झलक जो धार ख़ून में थी , कहाँ ख़ंजरों में थी रोए थे मेरे हाल प काँटे भी राह के शिद्दत तपक की ऐसी मेरे आबलों में थी कैसा ये फ़ासला था कि हर पल वो साथ था उल्फ़त की इक तड़प भी कहीं रंजिशों में थी बच कर तो आ गए थे किनारे प हम मगर तूफ़ाँ की हर अदा भी इन्हीं साहिलों में थी आख़िर को रिश्ते नातों में दीमक सी लग गई कैसी अजीब रस्म-ए-अदावत घरों में थी हर चंद गिर के हम को तो मिलना था ख़ाक में “ मुमताज़ ” उम्र भर की थकन इन परों में थी