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Showing posts from October 27, 2018

हर मसलेहत शनासी का मे'यार देख कर

हर मसलेहत   शनासी का मे ' यार देख कर चलते हैं हम ज़माने की रफ़्तार देख कर उकता गई हूँ हसरत ए दीदार देख कर भरता कहाँ है दिल उसे इक बार देख कर हालात ज़िन्दगी के तो यूँ ही रहेंगे यार होना भी क्या है सुब्ह का अखबार देख कर अब तक इसी ज़मीर पे कितना ग़ुरूर था हम दम ब ख़ुद हैं क़िलआ ये मिस्मार देख कर बदला ज़रा जो वक़्त तो नज़रें बदल गईं डरता है दिल अज़ीज़ों का किरदार देख कर आवारगी ने ऐसा निखारा हमें कि हम अब चल पड़े हैं राह को दुश्वार देख कर ले कर सवाल पहुंचे थे उस के हुज़ूर हम लौट आए उस के होंटों पे इनकार देख कर हैरत ज़दा है ज़ेहन तो क़ासिर ज़ुबान है " मुमताज़" उन निगाहों कि गुफ़्तार देख कर ہر مصلحت شناسی کا معیار دیکھ کر چلتے ہیں ہم زمانے کی رفتار دیکھ کر اکتا گئی ہوں حسرتِ دیدار دیکھ کر بھرتا کہاں ہے دل اسے اک بار دیکھ کر حالات زندگی کے تو یوں ہی رہینگے یار ہونا بھی کیا ہے صبح کا اخبار دیکھ کر اب تک یسی ضمیر پہ کتنا غرور تھا ہم دم بہ خود ہیں قلعہ یہ مسمار دیکھ کر بدلا ذرا جو وقت تو نظریں بدل گئیں ڈرتا ہے دل عزیزوں کا کردار دی