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Showing posts from August, 2018

हर आरज़ू को लूट लिया ऐतबार ने

हर     आरज़ू     को     लूट   लिया   ऐतबार   ने पहुँचा   दिया   कहाँ   ये   वफ़ा   के   ख़ुमार   ने मुरझाए   गुल ,   तो   ज़ख़्म   खिलाए   बहार ने "दहका   दिया   है   रंग-ए-चमन   लालाज़ार   ने" पलकों में भीगा प्यार भी हम को न दिख सका आँखों   को   ऐसे   ढाँप   लिया   था   ग़ुबार   ने क्या   दर्द   है   ज़ियादा   जो   रोया   तू   फूट कर पूछा   है   आबलों   से   तड़प   कर   ये   ख़ार   ने किरदार     आब   आब     शिकारी   का     हो   गया कैसी     नज़र     से   देख   लिया   है   शिकार   ने गोशों   में   रौशनी   ने       कहाँ   दी   हैं   दस्तकें "मुमताज़"   तीरगी   भी      अता   की   बहार   ने

बनी जाती है नाहक़ ज़िद तेरी यलग़ार का बाइस

बनी   जाती   है   नाहक़ ज़िद   तेरी   यलग़ार का   बाइस यक़ीं हद   से   ज़ियादा बन   न   जाए   हार   का   बाइस अना   ने   ज़हन की   ज़रखेज़   मिट्टी   में   जो   ज़िद   बोई ज़रा   सा   मस ' अला   फिर   बन   गया   तक़रार का   बाइस ग़ुरूर ईमान   ने   फ़िरऔनियत    का   बारहा   तोडा लहू   फिर   बन   गया   नापाकी   ए   ज़ुन्नार का   बाइस ज़माना   अडचनें   हाइल करे   अब   लाख   राहों   में मेरा   रद्द   ए   अमल   होगा   मेरी   रफ़्तार   का   बाइस ज़माने   से   गिला   कैसा , मुक़द्दर   से   शिकायत   क्या " अमल   मेरा   बना   है   ख़ामी   ए   किरदार   का   बाइस " हुई   है   रेज़ा   रेज़ा   ज़ात   तो   आवाज़   आई   है शिकस्त - ए - दिल   बना   " मुमताज़ " इस   झंकार   का   बाइस بنی   جاتی   ہے   ناحق   ضد   تری   یلغار   کا   باعث   یقین   حد   سے   زیادہ   بن   نہ   جائے   ہار   کا   باعث   انا   نے   ذہن   کی   زرخیز   مٹی   میں   جو   ضد   بوئی   ذرا   سا   مس الہ   پھر   بن   گیا   تقرار   کا   باعث   غرور

हर आरज़ू को लूट लिया ऐतबार ने

हर     आरज़ू     को     लूट   लिया   ऐतबार   ने पहुँचा   दिया   कहाँ   ये   वफ़ा   के   ख़ुमार   ने मुरझाए   गुल ,   तो   ज़ख़्म   खिलाए   बहार ने "दहका   दिया   है   रंग-ए-चमन   लालाज़ार   ने" पलकों में भीगा प्यार भी हम को न दिख सका आँखों   को   ऐसे   ढाँप   लिया   था   ग़ुबार   ने क्या   दर्द   है   ज़ियादा   जो   रोया   तू   फूट कर पूछा   है   आबलों   से   तड़प   कर   ये   ख़ार   ने किरदार     आब   आब     शिकारी   का     हो   गया कैसी     नज़र     से   देख   लिया   है   शिकार   ने गोशों   में   रौशनी   ने       कहाँ   दी   हैं   दस्तकें "मुमताज़"   तीरगी   भी      अता   की   बहार   ने

आँखों में क्या राज़ छुपा था

आँखों में क्या राज़ छुपा था कुछ तो उस ने यार कहा था टूटे फूटे राज़ थे दिल में और भला क्या इस के सिवा था ज़हन की भीगी भीगी ज़मीं पर यादों का इक शहर बसा था उजड़ी हुई दिल की वादी में कौन ये हर पल नग़्मासरा था सारी फ़सीलें टूट गई थीं कैसा अजब तूफ़ान उठा था बदली थीं बस वक़्त की नज़रें साया भी हम को छोड़ गया था यादों के वीरान नगर में दूर तलक बस एक ख़ला था दिल में कोई हसरत ही न होती ये भी क्या "मुमताज़" बुरा था

ऐसे मरकज़ प है ख़ूँख़्वारी अब इन्सानों की

ऐसे मरकज़ प है ख़ूँख़्वारी अब इन्सानों की अब भला क्या है ज़रूरत यहाँ शैतानों की बेड़ियाँ चीख़ उठीं यूँ कि जुनूँ जाग उठा हिल गईं आज तो दीवारें भी ज़िंदानों की उन निगाहों की शरारत का ख़ुदा हाफ़िज़ है लूट लें झुक के ज़रा आबरू मैख़ानों की हम ने घबरा के जो आबाद किया है इन को आज रौनक़ है सिवा देख लो वीरानों की ख़ून से लिक्खी गई है ये मोहब्बत की किताब कितनी दिलचस्प इबारत है इन अफ़सानों की अपनी क़िस्मत का भरम रखने को हम तो “ मुमताज़ ” लाश काँधों पे लिए फिरते हैं अरमानों की

अक्स से अपने नज़र अब मैं मिलाऊं कैसे

अक्स   से   अपने   नज़र   अब   मैं   मिलाऊं   कैसे सर   पे   ये   बार   ए निदामत   मैं   उठाऊं   कैसे बोझ   हो   जाता   है   इंसान   को   ख़ुद   अपना   वजूद टूटे   कांधों   पे   ये   अब   बोझ   उठाऊं   कैसे क्या   ख़बर   वक़्त   के   कोहरे   में   छुपा   क्या   होगा अंधी   तक़दीर   पे   सरमाया   लुटाऊं   कैसे भूल   बैठी   है   मेरी   ज़िन्दगी   हंसने   का   हुनर मुस्कराने   का   इसे   ढंग   सिखाऊं   कैसे लिख   तो   दूं   कोई   नई दास्ताँ   दिल   पे   लेकिन नाम   जो   लिक्खा   है   अब   तक   वो   मिटाऊं   कैसे मसलेहत   समझे   कोई   और   न   कोई   बात   सुने ऐसी   मुंहज़ोर   तमन्ना   से   निभाऊं   कैसे एक   उम्मीद   की   ज़ंजीर   क़दम   थामे   है उठ   के   जाऊं   तो   तेरे   दर   से   मैं   जाऊं   कैसे जब   तलक   सांस   है , रिश्तों   को   तो   ढोना   है   मगर " बात   ये   घर   की   है , बाज़ार   में   लाऊं   कैसे " दिल   में   जो   आग   सी   ' मुमताज़ ' जला   करती   थी बुझने   वाली   है , इसे   अब