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Showing posts from June 30, 2018

इंसाफ़

ये नज़्म मैं ने तब लिखी थी जब इशरत जहां को सूप्रीम कोर्ट ने बेक़ुसूर करार दिया था...उम्मीद है आप को पसंद आएगी तोड़ ही डाला ख़ुदा ने लो तअस्सुब का ग़ुरूर दोस्तो , इशरत जहाँ साबित हुई है बेक़ुसूर देखना है ये सितारे रंग क्या दिखलाएंगे क्या बहाना अब के अपने रहनुमा फ़रमाएंगे किस तरह अब के हमारे ज़ख़्म ये सहलाएंगे क्या कहा ? इंसाफ़ ये मक़्तूल को दिलवाएँगे ? वाह वा , क्या ख़ूब हैं इन की करम फ़रमाइयाँ क्या अदा-ए-नाज़ है , क्या ख़ूब अंदाज़-ए-बयाँ वक़्त को माज़ी में लेकिन ले के जा सकते हैं क्या जान ये इशरत जहाँ की फिर दिला सकते हैं क्या खोई है इक माँ ने बेटी , वो भी लौटाएँगे क्या ? ज़ुल्म के ये देवता इंसाफ़ फ़रमाएँगे क्या ज़ुल्म के काले हुनर की बानगी तो देखिये रक्षकों की अपने ये मर्दानगी तो देखिये क्या करेंगे ये भला दहशत के दानव का शिकार एक अबला , बेबस-ओ-लाचार पर करते हैं वार आज इंसानी लहू से किस का दामन साफ़ है ? मार दो बेमौत जिस को चाहो , क्या इंसाफ़ है रहनुमाओ , जाँ हमारी इतनी सस्ती ? किस लिए ? घर जलाने वालों की ये सर परस्ती किस लिए ? दार पर इंसानियत

शिकस्ता हसरतों को अपना जो रहबर बना लेते

शिकस्ता हसरतों को अपना जो रहबर बना लेते हम अपनी ज़ात के अंदर भी इक महशर बना लेते हमारे दिल की आतिश सर्द होती जाती है वरना हम अपनी बेड़ियों को ढाल कर ख़ंजर बना लेते \ हम अपने हौसलों को अब भी जो थोड़ी हवा देते पसीने को भी अपने अंजुम-ओ-अख़्तर बना लेते अगर परवाज़ अपनी साथ दे देती इरादों का जुनूँ की ज़र्ब से हम आस्माँ में दर बना लेते मज़ा होता अगर इस सहबा-ए-उल्फ़त में थोड़ा भी तो दिल की किरचियों को जोड़ कर साग़र बना लेते अगर ये दौलत-ए-यास-ओ-अलम मिलती नहीं तो भी नज़र के शबनमी क़तरों को हम गौहर बना लेते अभी “ मुमताज़ ” इतना तो न था जज़्बा परस्तिश का तुझे क़िस्मत का अपनी किस लिए रहबर बना लेते  

एक सवाल

तुम्हारे दिल में हम लोगों की ख़ातिर क्यूँ ये नफ़रत है मुझे अपने वतन के चंद लोगों से शिकायत है ये तुम हो , तुम ने हम को आज तक बस ग़ैर जाना है ये हम हैं , हम ने इस हिन्दोस्ताँ को अपना माना है अगर ये सच न होता , तो भला हम क्यूँ यहाँ होते हम अपने खून की बूंदों की क्यूँ फ़सलें यहाँ बोते वो जिस ने एक दिन कुनबे के कुनबे काट डाले थे ज़मीं के साथ ज़हन ओ दिल भी जिस ने बाँट डाले थे ये वहशी साज़िश ए दौरान हम ने तो नहीं की थी कि वो तक़सीम ए हिन्दुस्तान हम ने तो नहीं कि थी हुकूमत के वो भूके भेड़िये , इंसान के क़ातिल फिरंगी साज़िशों में थे हमारे रहनुमा शामिल वो इक काला वरक़ तारीख़ का क्या दे गया हम को तअस्सुब , खौफ़ , दिल शिकनी का साया दे गया हम को बहा जो खून ए नाहक़ , था तुम्हारा भी , हमारा भी लुटा था कारवां दिल का , तुम्हारा भी , हमारा भी मसाइब फ़िरक़ा वाराना , गुनह था चंद लोगों का जो था अम्बार लाशों का , तुम्हारा था , हमारा था हुए थे घर से बेघर जो , वो तुम जो थे , तो हम भी थे फिरंगी साज़िशें जीती थीं , हिन्दुस्तान हारा था तो फिर ये ज़ुल्म कैसा है , कि मुजरिम

नज़रें टिकाए बैठी हूँ कब से मैं ख़्वाब में

नज़रें टिकाए बैठी हूँ कब से मैं ख़्वाब में मंज़र हज़ार सिमटे हैं हर इक हुबाब में यादों के रेगज़ार में फिरते हैं दर ब दर मिलता है इक अजीब सुकूँ इस अज़ाब में बदरंग पन्ना पन्ना है , बिखरा वरक़ वरक़ लिक्खा है एक नाम अभी तक किताब में बीनाई छीन ली गई इस जुर्म में मेरी देखा था इक हसीन नज़ारा जो ख़्वाब में थोड़ी सी झूठ की भी मिलावट तो थी ज़रूर लर्ज़िश सी क्यूँ ये आ गई उस के जवाब में इक तश्नगी का बोझ संभाले लबों प हम कब से भटक रहे हैं वफ़ा के सराब में “ मुमताज़ ” अस्बियत ने सिखाया है ये सबक़ शामिल कहाँ थीं नफ़रतें दिल के निसाब में