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Showing posts from February, 2018

कभी रुके तो कभी उठ के बेक़रार चले

कभी रुके तो कभी उठ के बेक़रार चले जो ले के हाथ में हसरत का तार तार चले کبھی رکے تو کبھی اٹھ کے بیقرار چلے جو لے کے ہاتھ میں حسرت کا تار تار چلے निसार हों मह-ओ-ख़ुर्शीद उसकी हस्ती पर नज़र से उसकी थमे और कभी बहार चले نثار ہو مہ و خورشید اس کی ہستی پر مظر سے اس کی تھمے اور کبھی بہار چلے उठाए फिरते थे सीने पे एक मुद्दत से हयात आज तेरा क़र्ज़ हम उतार चले اٹھائے پھرتے تھے سینے پہ ایک مدت سے حیات آج ترا قرض ہم اتار چلے सबा ने चूम लिए बढ़ के नक़्श-ए-पा अपने उसी दयार की जानिब जो बेक़रार चले سبا نے چوم لئے بڑھ کے نقشِ پا اپنے اسی دیار کی جانب جو بیقرار چلے गराँ गुज़रती है “ मुमताज़ ” दिल पे जो अक्सर वो बात महफ़िल-ए-याराँ में बार बार चले گراں گذرتی ہے ممتازؔ دل پہ جو اکثر وہ بات محفلِ یاراں میں بار بار چلے

सच

आरज़ूओं का हर ख़्वाब झूटा آرزؤں کا ہر خواب جھوٹا झूटा ख़ुर्शीद महताब झूटा جھوٹا خورشید مہتاب جھوٹا ये ज़माने की रफ़्तार झूठी یہ زمانے کی رفتار جھوٹی सुबह झूठी , शब-ए-तार झूठी صبح جھوٹی، شبِ تار جھوٹی प्यार की हर कहानी भी झूठी پیار کی ہر کہانی بھی جھوٹی मेरी जलती जवानी भी झूठी میری جلتی جوانی بھی جھوٹی ये लचक मेरे बालों की झूठी یہ لچک میرے بالوں کی جھوٹی रौशनी मेरे गालों की झूठी روشنی میرے گالوں کی جھوٹی ये निगाहों की मस्ती भी झूठी یہ نگاہوں کی مستی بھی جھوٹٰی मेरा दिल मेरी हस्ती भी झूठी میرا دل میری ہستی بھی جھوٹی रिश्तों नातों का ब्योपार झूटा رشتوں ناطوں کا بیوپار جھوٹا अब लगे सारा संसार झूटा اب لگے سارا سنسار جھوٹا एक सच्चा तेरा प्यार सजना ایک سچا ترا پیار سجنا तेरी बाहें मेरा हार सजना تیری باہیں میرا ہار سجنا

मेरे महबूब

मेरे महबूब , मेरी जान , मेरे होश रुबा میرے محبوب، مری جان، میرے ہوش ربا तेरी उल्फ़त ही मेरी ज़ात का सरमाया है تیری الفت ہی میری ذات کا سرمایہ ہے मेरी हर साँस तेरी साँस से मन्सूब हुई میری ہر سانس تیری سانس سے منصوب ہوئی मेरी धड़कन पे , मेरे दिल पे तेरा साया है میری دھڑکن پہ میرے دل پہ ترا سایہ ہے जाने कब आया मेरी ज़ीस्त में चुपके चुपके جانے کب آیا میری زیست میں چپکے چپکے जाने कब तू मेरे जीने का सबब बन बैठा جانے کب تو مرے مرنے کا سبب بن بیٹھا मेरे एहसास के हर गोशे पे क़ाबिज़ हो कर میرے احساس کے ہر گوشے پہ قابض ہو کر तेरा एहसास मेरा रख़्त-ए-तरब बन बैठा تیرا احساس میرا رختِ طرب بن بیٹھا सोचती हूँ , मेरी दुनिया में अगर तू न हुआ سوچتی ہوں مری دنیا میں اگر تو نہ ہوا इस तसव्वर से मेरी रूह लरज़ उठती है اس تصور سے میری روح لرز اٹھتی ہے दिल पे इक ख़ौफ़ सा तारी है न जाने क्यूँ अब دل پہ اک خوف سا طاری ہے نہ جانے کیوں اب जाने क्यूँ उल्फ़त-ए-मजरूह लरज़ उठती है جانے کیوں الفتِ مجروح لرز اٹھتی ہے मेरे जीने के लिए ज़ात तेरी लाज़िम है میرے جی

रिश्तों का ये राज़ भी कितना गहरा लगता है

रिश्तों का ये राज़ भी कितना गहरा लगता है दर्द-ओ-अलम का हर अफ़साना अपना लगता है رشتوں کا یہ راز بھی کتنا گہرا لگتا ہے درد و الم کا ہر افسانہ اپنا لگتا ہے चोट कोई खाई है उसने ऐसा लगता है आज तो बदला बदला उसका लहजा लगता है چوٹ کوئی کھائی ہے اس نے ائیسا لگتا ہے آج تو بدلا بدلا اس کا لہجہ لگتا ہے खेल रहा है जो ग़ुरबत की गोद में हसरत से ये तो किसी के दिल का कोई टुकड़ा लगता है کھیل رہا ہے جو غربت کی گود میں حسرت سے یہ تو کسی کے دل کا کوئی ٹکڑا لگتا ہے ये वहशत , ये बेचैनी , ये दर्द तो मेरा है रंग तुम्हारे चेहरे का क्यूँ फीका लगता है یہ وحشت، یہ بیچینی، یہ درد تو میرا ہے رنگ تمہارے چہرے کا کیوں پھیکا لگتا ہے शब की सियाही ने क्या इसको भी रंग डाला है ? आज सहर का रंग भी कितना काला लगता है شب کی سیاہی نے کیا اس کو بھی رنگ ڈالا ہے آج سحر کا رنگ بھی کتنا کالا لگتا ہے हर लब पर फिर हैरत के ताले पड़ जाते हैं नहले पर “ मुमताज़ ” कभी जब दहला लगता है ہر لب پر پھر نفرت کے تالے پڑ جاتے ہیں نہلے پر ممتازؔ کبھی جب دہلا لگتا ہے

इस मुसाफ़त से मुझे क्या है मिला याद नहीं

इस मुसाफ़त से मुझे क्या है मिला याद नहीं क्या मेरे पास है , क्या क्या है लुटा याद नहीं اس مسافات سے مجھے کیا ہے ملا یاد نہیں کیا مرے پاس ہے، کیا کیا ہے لٹا یاد نہیں दिल का ये शहर उजड़ जाने का एहसास तो है हो गई कैसे क़यामत ये बपा याद नहीं دل کا یہ شہر اجڑ جانے کا احساس تو ہے ہو گئی کیسے قیامت یہ بپا یاد نہیں आग सी जलती रही दिल की सियाही में मगर कौन इस आतिश-ए-दोज़ख़ में जला याद नहीं آگ سی جلتی رہی دل کی سیاہی میں مگر کون اس آتشِ دوزخ میں جلا یاد نہیں वहशतें ऐसी कि ख़ुद से भी हेरासाँ हैं हम बेख़ुदी ऐसी कि अपना भी पता याद नहीं وحشتیں ائیسی کہ خود سے بھی حراساں ہیں ہم بیخودی ائیسی کہ اپنا بھی پتہ یاد نہیں ये तो है याद कि दिल में थी बड़ी आग मगर कब ये दिल सर्द हुआ , कब ये बुझा याद नहीं یہ تو ہے یاد کہ دل میں تھی بڑی آگ مگر کب یہ دل سرد ہوا، کب یہ بجھا یاد نہیں हम तो राहों के मनाज़िर में हुए गुम ऐसे कारवाँ जाने कहाँ जा के रुका याद नहीं ہم تو راہوں کے مناظر میں ہوئے گم ائیسے کارواں جانے کہاں جا کے رکا یاد نہیں जिसके होने से मेरी ज़ात में तु

नज़्म - उम्मीद (امید)

मैं तेरी मुंतज़िर ताउम्र जानाँ रह भी सकती हूँ हर इक रंज-ओ-अलम हर इक मुसीबत सह भी सकती हूँ है इसमें ज़िंदगी , मुझको ये मरना भी गवारा है तुम्हारी इक नज़र जानाँ मेरे दिल का सहारा है میں تیری منتظر تاعمر جاناں رہ بھی سکتی ہوں ہر اک رنج و الم ہر اک مصیبت سہ بھی سکتی ہوں ہے اس میں زندگی، مجھ کو یہ مرنا بھی گوارہ ہے تمھاری اک نظر جاناں مرے دل کا سہارا ہے रिहा हो कर तुम्हारी क़ैद से आख़िर कहाँ जाऊँ तुम्हारा साथ हो तो आस्माँ धरती पे ले आऊँ तसव्वर की ज़मीं का गोशा गोशा तुमने घेरा है तुम्हारे रास्ते की ख़ाक में मेरा बसेरा है رہا ہو کر تمھاری قید سے آخر کہاں جاؤں تمہارا سااتھ ہو تو آسماں دھرتی پہ لے آؤں تصور کی زمیں کا گوشہ گوشہ تم نے گھیرا ہے تمہارے راستے کی خاک میں میرا بسیرا ہے बुझाऊँ जितना आतिश इश्क़ की उतना भड़कती है तुम्हारी जुस्तजू में ज़िंदगी जानाँ धड़कती है मेरी राहों में ताहद्द-ए-नज़र उल्फ़त ही उल्फ़त है बताऊँ क्या , तुम्हारे हिज्र में भी कितनी लज़्ज़त है ज़ुबाँ से रेशमी यादों के क़तरे चाट लेती हूँ ये घड़ियाँ हिज्र की उम्मीद से मैं काट लेती हूँ بجھاؤ

ग़ज़ल - कभी चेहरा ये मेरा जाना पहचाना भी होता था

कभी चेहरा ये मेरा जाना पहचाना भी होता था हमारे बीच पहले एक याराना भी होता था کبھی چہرا یہ میرا جانا پہچانا بھی ہوتا تھا ہمارے بیچ پہلے ایک یارانہ بھی ہوتا تھا यही काफ़ी कहाँ था , तेरे आगे सर झुका देते हमें दुनिया के लोगों को तो समझाना भी होता था یہی کافی کہاں تھا، تیرے آگے سر جھکا دیتے ہمیں دنیا کے لوگوں کو تو سمجھانا بھی ہوتا تھا शिकम की आग में जलना तो फिर आसान था यारो मगर दो भूके बच्चों को जो बहलाना भी होता था شکم کی آگ میں جلنا تو پھر آسان تھا یارو مگر دو بھوکے بچوں کو جو بہلانا بھی ہوتا تھا गुज़र कर बारहा तूफ़ान-ए-यास-ओ-बदनसीबी से फ़रेब-ए-ज़िन्दगी दानिस्ता फिर खाना भी होता था گذر کر بارہا طوفانِ یاس و بدنصیبی سے فریبِ زندگی دانستہ پھر کھانا بھی ہوتا تھا धरम और ज़ात के हर दाग़ से जो पाक था यारो रह-ए-दैर-ओ-हरम में एक मैख़ाना भी होता था دھرم اور ذات کے ہر داغ سے جو پاک تھا یارو رہِ دیروحرم میں ایک میخانہ بھی ہوتا تھا किए थे बारहा सजदे जमाल-ए-रू-ए-जानाँ को इसी दिल में मोहब्बत का वो बुतख़ाना भी होता था کیۓ تھے بارہا سجدے جمالِ روۓجاناں

ग़ज़ल - इक तख़य्युल जो आस पास रहे

इक तख़य्युल जो आस पास रहे रतजगों में वही मिठास रहे اک تخیل جو آس پاس رہے رتجگوں میں وہی مٹھاس رہے है इरादा अना का और ही कुछ आरज़ू मस्लेहत शनास रहे ہے ارادہ انا کا اور ہی کچھ آرزو مصلحت شناس رہے खुल न जाए ये वहशतों का भरम रात की तीरगी उदास रहे کھل نہ جاۓ یہ وحشتوں کا بھرم رات کی تیرگی اداس رہے ख़्वाहिशों की हसीन राहों में ज़िन्दगी महव-ए-इल्तेमास रहे خواہشوں کی حسین راہوں میں زندگی محوِ التماس رہے उम्र भर साथ साथ चलते रहे ज़ीस्त से फिर भी नाशनास रहे عمر بھر ساتھ ساتھ چلتے رہے زیست سے پھر بھی ناشناس رہے जुस्तजू में कमी न हो “ मुमताज़ ” मुझमें बाक़ी कोई तो प्यास रहे جستجو میں کمی نہ ہو ممتازؔ مجھ میں باقی کویء تو پیاس رہے

यक़ीनन होगा उस पर भी असर आहिस्ता आहिस्ता- غزل ग़ज़ल

यक़ीनन होगा उस पर भी असर आहिस्ता आहिस्ता तुलू होगी अँधेरे से सहर आहिस्ता आहिस्ता یقیناً ہوگا اس پر بھی اثر آہستہ آہستہ طلوع ہوگی اندھیرے سے سحر آہستہ آہستہ             हमारी बेख़ुदी जाने कहाँ ले जाए अब हमको किधर जाना था , चल निकले किधर आहिस्ता आहिस्ता ہماری بیخودی جانے کہاں لے جاۓ اب ہمکو کدھر جانا تھا، چل نکلے کدھر آہستہ آہستہ चमन दिल का उजड़ कर अब तो सहरा बनता जाता है लगे हैं सूखने सारे शजर आहिस्ता आहिस्ता چمن دل کا اجڑ کر اب تو صحرا ہوتا جاتا ہے لگے ہیں سوکھنے سارے شجر آہستہ آہستہ उभरता है नियाज़-ए-शौक़ अब तो बेनियाज़ी से दुआ जाने लगी है अर्श पर आहिस्ता आहिस्ता ابھرتا ہے نیازِ شوق اب تو بینیازی سے دعا جانے لگی ہے عرش پر آہستہ آہستہ मोहब्बत अब मुसलसल दर्द में तब्दील होती है बना जाता है शो ’ ला ये शरर आहिस्ता आहिस्ता محبت اب مسلسل درد میں تبدیل ہوتی ہے بنا جاتا ہے شعلہ یہ شرر آہستہ آہستہ चला ले तीर जितने तेरे तरकश में हैं ऐ क़ातिल मेरे सीने पे लेकिन वार कर आहिस्ता आहिस्ता چلا لے تیر جتنے تیرے ترکش میں ہیں اۓ قاتل مرے سینے پہ لیک