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Showing posts from February, 2017

रूह है बेहिस, आँखें वीराँ, दिल एहसास से ख़ाली है

रूह है बेहिस , आँखें वीराँ , दिल एहसास से ख़ाली है इस रुत में हर पेड़ बरहना , बिखरी डाली डाली है नफ़रत , आँसू , मक्र-ओ-छलावे , पी जाते हैं हँसते हुए जीने की इस दौर में हमने ये तरकीब निकाली है ख़ुशियाँ , चाहत , सिद्क़-ओ-मोहब्बत , ज़ब्त की दौलत दिल में थी इन जज़्बात की गलियों में दिल अपना आज सवाली है ये भी इमारत एक न इक दिन सीना तान खड़ी होगी जब्र की इस बस्ती में प्यार की नींव जो हमने डाली है याद ने दिल के दरवाज़े पर चुपके से जब दस्तक दी होंठ हँसे , आँखें छलकीं , ये सहर भी कितनी काली है आज का हर मंज़र है सुनहरा हर इक ज़र्रा रौशन है आज मुक़द्दर की धरती पर चारों तरफ़ हरियाली है जब सब कुछ है पास हमारे फिर ये ख़ला सा कैसा है अब ख़्वाबों के राजमहल का कौन सा कोना ख़ाली है आज सुख़न की रीत नई है , आज अदब आवारा है फ़िक्र तही इब्न-ए-आदम की और लबों पर गाली है इस बस्ती में भूख का डेरा और हुकूमत प्यासी है देश के लीडर कहते हैं , अब चारों तरफ़ ख़ुशहाली है वक़्त गया “ मुमताज़ ” वो जब मुफ़्लिस ने महल के देखे ख़्वाब आज के दौर में पेट भरा हो ये भी पुलाव ख़याली

मदावा-ए-दिल-ओ-जान-ओ-नज़र थी जिसकी हर ख़ूबी

मदावा-ए-दिल-ओ-जान-ओ-नज़र  थी  जिसकी  हर  ख़ूबी तसव्वुर  में  बसा  है  आज  तक  वो  जान -ए -महबूबी चलो  अच्छा  हुआ , इक  आस  की  ज़ंजीर  तो  टूटी शिकस्ता  नाव  तूफाँ से  लड़ी , साहिल  प्  आ  डूबी जो  निस्बत  मौज  से  थी , साहिलों  से  भी  वही  रग़बत न  हम  को  इल्म  था , साहिल  से  मौजों  की  है  मंसूबी फ़क़त  इक  लम्हा  काफ़ी है  मुक़द्दर  के  पलटने  को कभी  भटके  सराबों  में , कभी  मौजों  से  जाँ ऊबी वो  जो  दिल  का  मकीं  था , आजकल  महलों  में  रहता  है न  रास  आया  उसे  खंडर , तिजारत  उस  की  थी  ख़ूबी सफ़र  सहरा  ब  सहरा  था , तो  फिर  आसान  था  यारो समंदर  के  तलातुम  से  जो  खेले , मौज  ले  डूबी करें  अब  तर्क  ए  उल्फ़त , ये  मोहब्बत  निभ  न  पाएगी न  तुम  में  ज़ोर-ए-यज़दानी , न  हम  में  सब्र-ए-अय्यूबी तेरे  इस  इल्तेफ़ात-ए-नारसा तक  कौन  पहुंचेगा न  हम  में  हौसला  इतना , न  तेरा  इश्क़ मरऊबी वो  जल्वा , एक  वो  जल्वा , जो  मस्ताना  बना  डाले निगाह-ए-दीद  का  मोहताज  है  वो  जान-ए-महबूबी वही  "मुमताज़" जिस  ने  तुम 

हर अदा हम तो ब अंदाज़-ए-जुदा रखते हैं

हर अदा हम तो ब अंदाज़-ए-जुदा रखते हैं ऐब ये सब से बड़ा है कि वफ़ा रखते हैं हर नए ज़ख़्म को सर आँखों पे रक्खा है सदा दर्द सीने में तलब से भी सिवा रखते हैं मा ’ रेका माना है दुश्वार , मगर हम भी तो दिल में तूफ़ान , निगाहों में बला रखते हैं कितनी तारीकियाँ सीने में छुपा कर भी हम हर अँधेरे में तबस्सुम की ज़िया रखते हैं हर नफ़स एक अज़ीयत है तो धड़कन है वबाल एक इक साँस में सौ दर्द छुपा रखते हैं क्या कहा ? आपको हम से है अदावत ? साहब जाइए जाइए , हम भी तो ख़ुदा रखते हैं बात की बात में लड़ने पे हुए आमादा तीर हर वक़्त जो चिल्ले पे चढ़ा रखते हैं जाने कब उसकी कोई याद चली आए यहाँ दिल का दरवाज़ा शब-ओ-रोज़ खुला रखते हैं ख़ैरमक़दम न किया हमने उम्मीदों का कभी आरज़ूओं को तो हम दर पे खड़ा रखते हैं हम सा दीवाना भी “ मुमताज़ ” कोई क्या होगा हर तबाही को कलेजे से लगा रखते हैं ब अंदाज़-ए-जुदा – अलग अंदाज़ में , तलब – माँग , मा ’ रेका – जंग , तारीकियाँ – अँधेरा , तबस्सुम – मुस्कराहट , ज़िया – रौशनी , नफ़स – साँस , अज़ीयत – यातना , वबाल – मुसीबत , अदावत

कहाँ तक इन बयाबानों की कोई ख़ाक अब छाने

कहाँ तक इन बयाबानों की कोई ख़ाक अब छाने हमारी ज़िन्दगी में दूर तक बिखरे हैं वीराने न जाने कितने नक़्शे बनते रहते हैं तसव्वर में सुनाती है सियाही रात भर कितने ही अफ़साने यहाँ भी वो ही वहशत , वो ही ज़ुल्मत , वो ही महरूमी हम आए थे यहाँ दो चार पल की राहतें पाने न गर तर्क-ए-मोहब्बत हम करें अब तो करें भी क्या मोहब्बत भी है अब ज़ख़्मी , शिकस्ता हैं वो याराने लिए जाती है जाने किस जगह ये आरज़ू मुझ को हमारी बेबसी का कोई भी अब राज़ क्यूँ जाने सराबों का सफ़र सहरा ब सहरा करते जाते हैं जहाँ हम हैं वहाँ आती नहीं कोई घटा छाने ये किस मंज़िल पे आ पहुँची हमारी आबलापाई तमन्ना लाई है हमको यहाँ बस ठोकरें खाने करें किस से गिला “ मुमताज़ ” हम ख़ुद भी नहीं अपने पराया है तसव्वर भी , हैं सारे ख़्वाब बेगाने तसव्वर – कल्पना , सियाही – अँधेरा , ज़ुल्मत – अँधेरा , तर्क-ए-मोहब्बत – प्यार का त्याग , शिकस्ता – टूटी हुई , सराबों का सफ़र – मरीचिकाओं का सफ़र , सहरा ब सहरा – रेगिस्तान से रेगिस्तान तक , आबलापाई – पाँव में छाले होना , गिला – शिकायत 

गीत - जब छोड़ दिया - दिल तोड़ दिया

जब छोड़ दिया दिल तोड़ दिया क्यूँ याद फिर आते हो जानाँ ग़म ढल भी गया दिल जल भी गया क्या आग बुझाते हो जानाँ इन टूटी बिखरी यादों को कब तक मैं समेटूँ , कहाँ रखूँ बेरंग अधूरे सपनों में किस ख़्वाहिश का अब रंग भरूँ जब रात गई हर बात गई क्या याद दिलाते हो जानाँ एहसास का शीशा टूट गया जज़्बात का दामन छूट गया हस्ती में वो तूफ़ान उठा मेरा दिल भी मुझ से रूठ गया सब छीन लिया बदनाम किया अब राज़ छुपाते हो जानाँ ? हसरत की सुनहरी वो दुनिया वीरान अँधेरी है जानाँ हर एक तमन्ना रहज़न है उम्मीद लुटेरी है जानाँ वो दर्द है अब दिल सर्द है अब क्यूँ दर्द बढ़ाते हो जानाँ

नज़्म - क़ाबिज़

ऐ मेरी रातों की तनहाई के ख़ामोश रफ़ीक़ ऐ मेरे दिल के मकीं ऐ मेरे ख़्वाबों के शफ़ीक़ मेरे जज़्बात में तूफ़ान उठाने वाले मेरे ख़्वाबों पे मेरे ज़हन पे छाने वाले तू ने अरमान जगाए मेरे मुर्दा दिल में छुप के रहने लगा पलकों के सुनहरे ज़िल में मेरे एहसास-ए-सितमगर को हवा दी तू ने मेरे सोए हुए नग़्मों को सदा दी तू ने एक चिंगारी जो अब राख में गुम होने को थी याद इक वक़्त की परतों में कहीं खोने को थी वही चिंगारी भड़क उट्ठी है शो ’ लों की तरह ज़ख़्म ताज़ा हुए गुलमोहर के फूलों की तरह मेरे महबूब मेरे दोस्त ऐ मेरे हमदम ऐ बुत-ए-संग मेरे ऐ मेरे पत्थर के सनम मेरे एहसास पे क़ाबिज़ है तेरे प्यार का ग़म मैं ने रक्खा है तेरी शोख़ अदाओं का भरम वर्ना ऐसी तो नहीं मुझ पे तेरी नज़र-ए-करम कि मेरे टूटे हुए दिल को क़रार आ जाए दिल-ए-ग़मगश्ता मेरा जिससे सुकूँ पा जाए 

हम को बादल के तअक़्क़ुब का सिला

हम को बादल के तअक़्क़ुब का सिला सिर्फ़ तश्नालबी-ओ-प्यास मिला बेहिसी का ये सिलसिला पैहम अब तवक़्क़ोअ हमें न कोई गिला राह आसाँ है पार क्यूँकर हो हादसा भेज , कोई ज़ख़्म खिला एक मुद्दत से ये घर तन्हा है ऐ हवा छेड़ न कर , दर न हिला हो उठे ज़िन्दा मनाज़िर सारे बाग़-ए-माज़ी में जब वो फूल खिला दर्द हद से गुज़र गया अब तो हो न कोई दवा तो ज़हर पिला और कुछ जब्र की रफ़्तार बढ़ा ज़िन्दगी का मुझे एहसास दिला कब तलक दश्त नवर्दी ऐ दिल घर को चल , दर की भी ज़ंजीर हिला तेरी बरबादी-ए-पैहम “ मुमताज़ ” है तेरी ख़ुशमज़ाक़ियों का सिला  तअक़्क़ुब – पीछा करना , तवक़्क़ोअ – उम्मीद , मनाज़िर – दृश्य , दश्त नवर्दी – जंगल में भटकना , बरबादी-ए-पैहम – लगातार बर्बाद होना 

मुंतशर जज़्बात ने सीने को ख़ाली कर दिया

मुंतशर जज़्बात ने सीने को ख़ाली कर दिया तार कर डाला अना को हिस को ज़ख़्मी कर दिया राहत-ओ-तस्कीन को अब छोड़ कर आगे बढ़ो मेरे मुस्तक़बिल ने ये फ़रमान जारी कर दिया क्या हो अब रद्द-ए-अमल , कुछ भी समझ आता नहीं अक़्ल पर वहशत ने इक सकता सा तारी कर दिया वो भी था ज़ख़्मी , लहू में तर बदन उसका भी था हम ने उसकी जीत का ऐलान फिर भी कर दिया धज्जियाँ अपनी अना की उसके दर पर छोड़ दीं क़र्ज़ ये उसकी अना पर हम ने बाक़ी कर दिया जो पस-ए-अल्फ़ाज़ था हम ने सुना वो भी मगर उसने जो हम से कहा हमने भी वो ही कर दिया हम मिटा आए हैं उसकी राह से हर इक निशाँ जो कि सोचा भी नहीं था , काम वो भी कर दिया क़त्ल कर डाला वफ़ा को तोड़ दी हर आरज़ू एक इस ज़िद ने हमें “ मुमताज़ ” वहशी कर दिया मुंतशर – बिखरा हुआ , तार कर डाला – फाड़ दिया , अना – अहं , हिस – भावना , तस्कीन – सुकून , मुस्तक़बिल – भविष्य , रद्द-ए-अमल – प्रतिक्रिया , सकता – अवाक होना , पस-ए-अल्फ़ाज़ – शब्दों के पीछे , वहशी – जंगली

शिकस्ता हो के भी बिस्मिल नहीं था

शिकस्ता हो के भी बिस्मिल नहीं था मेरे सीने में शायद दिल नहीं था जिसे दे डालीं हम ने सारी साँसें हमारे प्यार के क़ाबिल नहीं था जो उस की याद आई तो ये जाना भुलाना भी उसे मुश्किल नहीं था मैं उस के बाद भी ज़िंदा हूँ , गोया वो मेरी रूह में दाख़िल नहीं था समंदर था , तलातुम था , भंवर थे कहीं भी कोई भी साहिल नहीं था हमें मालूम थे उस के इरादे किसी पहलू से दिल ग़ाफिल नहीं था जिसे हक दे दिया था फ़ैसले का वो मुजरिम था , कोई आदिल नहीं था हमें "मुमताज़" जो सरशार करता वो दिल को कर्ब भी हासिल नहीं था शिकस्ता- टूटा हुआ , बिस्मिल- घायल , गोया- जैसे कि , रूह में दाखिल- आत्मा में समाया हुआ , तलातुम- लहरों का उठना गिरना , साहिल- किनारा , आदिल- न्यायाधीश , सरशार- मदमस्त , कर्ब-दर्द 

बाग़ी क़व्वाल - अज़ीज़ नाज़ाँ (क़िस्त 4)

हर साल अजमेर में हुज़ूर ग़रीब नवाज़ के उर्स के मौक़े पर तमाम क़व्वाल वहाँ हाज़िरी देने जाते हैं । ऐसा माना जाता है के महफ़िले-समाअ में जिस को गाने का मौका मिल गया उस कि क़िस्मत खुल जाती है । नौशाद से अलग होने के बाद अज़ीज़ साहब काफी मायूस थे, और उसी मायूसी के आलम में वो हाज़िरी के लिए अजमेर पहुंचे । दिल में मायूसी भी थी, ग़ुस्सा भी और शिकायतें भी, और जो ग़ज़ल वो वहाँ गाने के लिए ले गए थे, उस के बोल थे, ख़्वाजा हिन्दल्वली हो निगाह ए करम, मेरा बिगड़ा मुक़द्दर संवर जाएगा  एक अदना भीकरी जो दहलीज़ पर आ के बैठा है उठ कर किधर जाएगा  महफ़िले-समाअ में उन्हों ने अपना नाम दर्ज करा दिया था, लेकिन गाने वालों की फ़ेहरिस्त काफी लंबी थी । सुबह के 4 बज चुके थे, और ऐसा लग रहा था के आज उन का नंबर नहीं आएगा । एक एक पल भारी था, लेकिन इंतज़ार के अलावा और कोई चारा भी नहीं था । तो इंतज़ार करते रहे, और दिल ही दिल में हुज़ूर के दरबार में फरियाद भी करते रहे कि क्या मेरा नंबर नहीं आएगा । अब ये कोई मौजिज़ा था, या करामत, या फिर उन कि क़िस्मत, उस दिन 4-5 बड़े बड़े क़व्वाल जिन का नाम उन के नाम के पहले दर्ज था, महफिल से ग़ैर हाज़िर थे । इस तरह उन

बाग़ी क़व्वाल - अज़ीज़ नाज़ाँ (क़िस्त 3)

अभी तक वो इस्माईल आज़ाद के साथ कोरस करते आए थे, लेकिन अब उन्हें अपनी पहचान चाहिए थी । इस के लिए उन्हों ने अपने एक दोस्त यूसुफ़ अंदाज़ के साथ मिल कर एक गेम प्लान बनाया । ये दोनों किसी भी बड़े क़व्वाल के प्रोग्राम में पहुँच जाते । वहाँ ये दोनों अलग हो जाते । अब यूसुफ़ अंदाज़ ऑर्गनाइज़र को ढूँढता, उस से मिलता, और बातों बातों में ही उसे बताता, "वो लड़का ( यानी अज़ीज़ ) बहुत अच्छा गाता है । आप एक बार उसे सुनिए, इन सब को भूल जाएंगे ।" इस बात से मुतास्सिर हो कर ऑर्गनाइज़र उन से एक दो कलाम सुनाने का इसरार करता । वो पहले झूठ मूठ कि ना नुकर करते, फिर तैयार हो जाते । एक दो कलाम पेश करते, जो रक़म मिलती उसे बटोरते और चलते बनते । उधर उन कि तूफ़ानी पर्फ़ार्मेन्स के बाद असल क़व्वाल का प्रोग्राम जाम न पाता । थोड़े दिनों में ये बात मशहूर हो गई कि अज़ीज़ क़व्वालों का प्रोग्राम ख़राब कर देता है ।  इधर उन्हों ने रिकॉर्डिंग के लिए जद्दो जहद शुरू कर दी थी । उस वक़्त कोलम्बिया के रेकॉर्ड्स चलन में थे । कोलम्बिया की मेन ब्रांच कोलकाता में थी, और यहाँ मुंबई में भी एक ब्रांच थी । मुंबई ब्रांच के कर्ता धर्ता क़ासिम साहब थे,

बाग़ी क़व्वाल - अज़ीज़ नाज़ाँ (क़िस्त 2)

उस वक़्त क़व्वालियों का दौर दौरा था । फ़िल्म "अलहिलाल" का गीत "हमें तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने" हिट हो चुका था, और बच्चे बच्चे की ज़ुबान पर था । और इस के गायक इस्माईल आज़ाद की क़व्वाली की दुनिया में तूती बोलती थी । उन से मिलने और उन का प्रोग्राम बुक करने के लिए उन के घर के आगे लाइन लगी रहती थी । इत्तफ़ाक़ से इस्माईल आज़ाद उसी मोहल्ले में रहते थे, जिस में अज़ीज़ नाज़ाँ का घर था । कुछ घर वालों की प्रतिष्ठा, कुछ अपने टैलंट के बलबूते पर हुआ नाम, और कुछ इस लिए कि इस्माईल आज़ाद के छोटे भाई क़लंदर आज़ाद से उन कि दोस्ती थी, वजह कुछ भी रही हो, लेकिन इस्माईल आज़ाद के घर उनका आना जाना था । ये बात भी उन के घर वालों को बेहद नागवार थी । एक तो वो लोग सय्यद थे और इस्माईल आज़ाद क़ुरैशी, दूसरे उन का ख़ानदान बहुत मोअज़्ज़िज़ था, जबकि इस्माईल आज़ाद गाने बजाने से तअल्लुक़ रखते थे, जो उस ज़माने में यूँ भी भाँड-मीरासियों का काम समझा जाता था, अच्छे घरों के बच्चों को इस से दूर रहने की हिदायत दी जाती थी, फिर इस्लाम में तो इसे हराम ही क़रार दिया गया है । अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है के अज़ीज़ साहब को किन पाबंदि

बाग़ी क़व्वाल - अज़ीज़ नाज़ाँ (क़िस्त 1)

बेमिसाल शख़्सियत, नशे में डूबी आवाज़, लाजवाब अंदाज़ और बाग़ियाना तेवर, ग़ुस्सा ऐसा कि हमेशा नाक पर रखा रहे, अख़्लाक़ ऐसा कि दुश्मन भी मुरीद हो जाए और ख़ुलूस ऐसा कि बड़े बड़े इबादतगुज़ार सजदा रेज़ हो जाएँ । कुछ ऐसी ही magnetic शख़्सियत थी अज़ीज़ नाज़ाँ की । अज़ीज़ नाज़ाँ साहब मलबार (केरल) के एक सय्यद घराने से तअल्लुक़ रखते थे । उन के वालिद और वालिदा बड़े दीनदार, इबादत गुज़ार और परहेज़गार थे । एक भाई और तीन बहनें उन से बड़े थे और तीन भाई और एक बहन छोटे । उन का ख़ानदान काफी मोअज़्ज़िज़ माना जाता था । आज भी वो गली, जिस में उन का पुश्तैनी मकान है, उन के नाना मोहम्मद इब्राहीम सारंग के नाम से मंसूब है, और एम० ई० सारंग मार्ग के नाम से जानी जाती है । सुना तो ये भी है कि उन के ख़ानदान में उमर क़ाज़ी नाम के कोई वली भी हुए हैं, जिन का मज़ार आज भी केरल के शहर कालीकट में मौजूद है । अज़ीज़ नाज़ाँ अपनी तरह के अनोखे ही इंसान थे । बचपन में वो इतने शरीर थे कि उन की माँ को पल पल उन पर नज़र रखनी पड़ती थी । घर में मज़हबी माहौल होने के बावजूद उन को धार्मिक कर्म कांडों से कोई दिलचस्पी नहीं थी । शुरू में जुम्मा जुम्मा नमाज़ पढ़ भी लेते थे, लेकिन

महरूमी की धूप ढली, सर पर दौलत के साए हैं

महरूमी की धूप ढली , सर पर दौलत के साए हैं राहत का वो दौर गया बेचैनी के दिन आए हैं कितनी मुद्दत बाद मिली फ़ुरसत दो पल आराम को तो गिनते रहे कैसे कैसे मौक़े बस मुफ़्त गँवाए हैं वक़्त ने करवट क्या बदली चेहरे ही सारे बदल गए कल तक जो अपने से लगते हैं वो आज पराए हैं जिनको चलना हम ने सिखाया आगे कब के निकल गए थक कर राह में हम बैठे हैं , रात के गहरे साए हैं आज हिसाब-ए-रोज़-ओ-शब करने बैठे तो राज़ खुला सारी उम्र लुटाई है तो कुछ लम्हे हाथ आए हैं ज़िन्दगी हाथ से छूट के खोई , वक़्त फिसलता जाता है इस मंज़िल पर साथ में अपने सिर्फ़ क़ज़ा ही लाए हैं कोई तमन्ना , कोई जज़्बा , कोई ग़म “ मुमताज़ ” नहीं एक दिल-ए-बेहिस है , और हम और अजल के साए हैं रोज़-ओ-शब – रात और दिन , लम्हे – पल , क़ज़ा – मौत , अजल – मौत 

कभी जो मुस्कराए होंठ तो नम हो गईं आँखें

कभी जो मुस्कराए होंठ तो नम हो गईं आँखें ना जाने कितने मंज़र हैं छुपाए आबगीं आँखें वो नज़रें छेड़ती हैं तार-ए-उल्फ़त बरबत-ए-जाँ पर झुकी जाती हैं बार-ए-हुस्न से ये शर्मगीं आँखें अजब आलम है , बिखरी जाती है हस्ती फ़ज़ाओं में कहीं अक़्ल और कहीं दिल है , कहीं हम हैं , कहीं आँखें गुज़र जाएगा दिन , पर रात की वुस ’ अत का क्या कीजे झपकतीं ही नहीं पल भर को जलती आतिशीं आँखें ये शग़्ल अहले ज़माना का गुज़रता है गराँ दिल पर कि जैसे जायज़ा लेती हों सब की नुक्ताचीं आँखें चलन सिखला गई हैं हम को भी दुनिया में जीने का जहान-ए-तुंदख़ू की फ़ितना परवर ऐब बीं आँखें नशे में झूमे कुल आलम , ये क़ुदरत लड़खड़ा जाए ज़रा “ मुमताज़ ” छलका दें जो मै वो आबगीं आँखें आबगीं – शीशे के जैसी चमकीली , बरबत – सरोद , शर्मगीं – शर्मीली , वुस ’ अत – फैलाव , आतिशीं – आग के जैसी , शग़्ल – शौक , गराँ – भारी , नुक्ताचीं – ऐब ढूँढने वाली , तुंदख़ू – बदमिज़ाज , फ़ितना परवर – फ़ितना फैलाने वाली , ऐब बीं – ऐब ढूँढने वाली 

ख़्वाहिश

दिल को छलती है ख़्वाहिश कोई प्यार है आज़माइश कोई हर क़दम दिल की साज़िश कोई दिल में जलती है आतिश कोई ऐ ख़ुदा ये चाहतें , ये हसरतें ये अजनबी सी राहतें ये ग़ुरूर का वो सुरूर है दिल सब से है बेगाना हर हिकायत से अंजान है जाने दिल क्यूँ परेशान है कुछ ना बोले ये नादान है फिर भी मेरी ये पहचान है ऐ ख़ुदा ये कोशिशें , ये काविशें ये सरसरी सी साज़िशें ना मुझे सता मेरे दिल बता क्यूँ हो गया दीवाना 

हर घड़ी पलकों में है बेख़्वाबियों का सिलसिला

हर घड़ी पलकों में है बेख़्वाबियों का सिलसिला सारा आलम सो रहा है , जागता है रास्ता एक वो छोटी सी लग़्ज़िश , ज़िन्दगी भर की सज़ा बन गई जाँ की मुसीबत एक छोटी सी ख़ता वापसी की राह कोई अब नज़र आती नहीं आँधियों ने तो मिटा डाले हैं सारे नक़्श-ए-पा रास क्या आएगा साक़ी मुझ को ये तेरा करम तश्नगी मेरी कहाँ , ये तेरा मैख़ाना कुजा रात की वीरान राहों में ये कैसा शोर है मुझ को पागल कर न दे दिल के धड़कने की सदा अजनबी एहसास ये कैसा है दिल के चार सू दर पे दस्तक दे रही है सरफिरी पागल हवा फिर वही बेहिस सी रातें , फिर वही वीरान दिन जाँ की गाहक बन गई है वहशतों की इंतेहा दे के हम को चंद साँसें सारी ख़ुशियाँ लूट लीं हम को अपनी ज़िन्दगी से है फ़क़त इतना गिला अब न कोई ग़म , न हसरत है , न कोई दर्द है रह गया “ मुमताज़ ” पैहम रतजगों का सिलसिला बेख़्वाबी – नींद न आना , लग़्ज़िश – लड़खड़ाना , नक़्श-ए-पा – पाँव के निशान , कुजा – कहाँ , चार सू – चारों तरफ , बेहिस – भावनाशून्य , वहशत – घबराहट , फ़क़त – सिर्फ़ , गिला – शिकायत , पैहम – लगातार