ज़िन्दगी का हर इरादा कैसा फ़ितनाकाम है
ज़िन्दगी
का हर इरादा कैसा फ़ितनाकाम है
पेशतर
नज़रों के हस्ती का हसीं अंजाम है
खो
गए जाने कहाँ वो क़ाफ़िले, और अब तो बस
एक
हम हैं, इक हमारी ज़िन्दगी की शाम है
ख़ाली
दिल, ख़ाली उम्मीदें, ख़ाली दामन, ख़ाली
हाथ
एक
सरमाया हमारा ये ख़याल-ए-ख़ाम है
बेरुख़ी, नफ़रत, अदावत, हर अदा उनकी बहक़
हम
ने पाला है अना को हम पे ये इल्ज़ाम है
ये
जहान-ए-आरज़ू अपने लिए बेकार है
हमको
तो अपनी इसी बस बेख़ुदी से काम है
एक
हल्की सी शरारत, एक मीठा सा सुकूँ
लम्हा
भर का ये सफ़र इस ज़ीस्त का इनआम है
बढ़
चले हैं मंज़िलों की सिम्त फिर अपने क़दम
दूर
मुँह ढाँपे खड़ी वो गर्दिश-ए-अय्याम है
चार
पल में कर चलें “मुमताज़” कुछ कारीगरी
लम्हा
लम्हा ज़िन्दगी का मौत का पैग़ाम है
ख़याल-ए-ख़ाम
–
झूठा ख़याल, बहक़ – जायज़
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