नया आग़ाज़

रतजगे चुभने लगे जब मेरी इन आँखों में
मैं ने रातों के अँधेरों को वहीं छोड़ दिया
रास आया न मुझे जब ये सराबों का सफ़र
मैं ने तक़दीर के हर पेच का रुख़ मोड़ दिया

अब जलन है न कहीं शोर न तन्हाई है
दूर तक एक नज़ारा है घनी छाँओं का
हद्द-ए-बीनाई तलक सामने हरियाली है
हिम्मतें लेती हैं बोसा मेरे इक पाँओं का

जाग उठीं हसरतें, अरमानों ने अंगड़ाई ली
मुद्दतों बाद जो बेजानों ने अंगड़ाई ली
छोड़ कर माज़ी-ए-ज़र्रीं की सुनहरी यादें
एक अंजान मुसाफ़त पे निकल आई हूँ


सराबों का मरीचिकाओं का, हद्द-ए-बीनाई दृष्टि की सीमा, बोसा चुंबन, माज़ी-ए-ज़र्रीं सुनहरा अतीत, मुसाफ़त सफ़र 

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