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Showing posts from May, 2019

नज़्म - मुवाज़िना

नज़्म - मुवाज़िना हसरतों के संग काटो , राह के काँटे चुनो मर्द की दुनिया में जीना किस को कहते हैं , सुनो आहनी पाबंदियों से आरज़ू बुनते हैं हम ज़ुल्म के पत्थर प् लेकिन सर नहीं धुनते हैं हम ग़म के तूफाँ में जले हैं , सब्र की क़ंदील में रास्ता अपना बनाते हैं अना के नील में क़ाबिलीयत को हमारी रास्ता मिलता नहीं ये गराँ संग- ए- त ' अस्सुब सब्र से हिलता नहीं हिकमत- ए -अमली हमारी आप को दिखती नहीं साख के बाज़ार में सच्चाई ये बिकती नहीं तोहमतें हम पर हैं लाखों , हम प् सौ दुश्नाम हैं शोहरतें सारी की सारी आप ही के नाम हैं   आहनी – लोहे की , अना – अहं , नील – मिस्र की एक नदी , गराँ – भारी , संग- ए- त ' अस्सुब – भेद-भाव का पत्थर , हिकमत- ए -अमली – तदबीर , दुश्नाम – गाली موازنہ حسرتوں کے سنگ کاٹو، راہ کے کانٹے چنو مرد کی دنیا میں جینا کس کو کہتے ہیں سنو آہنی پابندیوں سے آرزو بنتے ہیں ہم ظلم کے پتھر پہ لیکن سر نہیں دھنتے ہیں ہم غم کے طوفاں میں جلے ہیں صبر کی قندیل میں راستہ اپنا بناتے ہیں انا کی نیل میں قابلیت کو ہماری راستہ ملتا نہیں یہ گر

हो गई मिस्मार हस्ती, मिट गया हर मस्अला

हो गई मिस्मार हस्ती , मिट गया हर मस्अला किस ख़मोशी से उठा है रूह में ये ज़लज़ला ہو گئی مسمار ہستی مٹ گیا ہر مسئلہ کِس خموشی سے اُٹھا ہے روح میں یہ زلزلہ रो पड़ी परवाज़ अबके , दर ब दर है हौसला ज़हन को खाने लगा है आरज़ूओं का ख़ला رو پڑی پرواز ابکے در بہ در ہے حوصلہ ذہن کو کھانے لگا ہے آرزؤں کا خلا आ गया लो फिर मुक़ाबिल तीरगी का मरहला ले के उम्मीदों की मय्यत आज का दिन भी ढला آ گیا لو پھر مقابل تیرگی کا مرحلہ لے کے امیدوں کی میت آج کا دن بھی ڈھلا इस सराब-ए-कश्मकश में कब तलक करते रहें जी को बहलाने की ख़ातिर हसरतों का मशग़ला اِس سرابِ کش مکش میں کب تلک کرتے رہیں جی کو بہلانے کی خاطر حسرتوں کا مشغلہ इस मुसलसल दर्द का अब कुछ तो है लाज़िम इलाज रो दिया है फूट कर अब पाँव का हर आबला اِس مسلسل درد کا اب کچھ تو ہے لازم علاج رو دیا ہے پھوٹ کر اب پاوں کا ہر آبلہ इस तरह तारीकियों से जंग हम करते रहे हो गई ख़ामोश जब हर शमअ , तो फिर दिल जला اس طرح تاریکیوں سے جنگ ہم کرتے رہے ہو گئی خاموش جب ہر شمع تو پھر دل جلا क्या मिलेगा तुम को बेबस दिल के मातम के सिव

हसरतें जगाने का मन नहीं किया मेरा

हसरतें जगाने का मन नहीं किया मेरा ये नगर बसाने का मन नहीं किया मेरा حسرتیں جگانے کا من نہیں کیا میرا یہ نگر بسانے کا من نہیں کیا میرا ख़ून का हर इक धब्बा कितना ख़ूबसूरत था ज़ख़्म-ए-दिल छुपाने का मन नहीं किया मेरा خون کا ہر اِک دھبہ کتنا خوبصورت تھا زخمِ دل چھپانے کا دل نہیں کیا میرا उस को जीत लेने को एक ज़र्ब काफ़ी थी बस उसे हराने का मन नहीं किया मेरा اُس کو جیت لینے کو ایک ضرب کافی تھی بس اسے ہرانے کا من نہیں کیا میرا तीरगी की ये शिद्दत कम तो ख़ैर क्या होती आज दिल जलाने का मन नहीं किया मेरा تیرگی کی یہ شدت کم تو خیر کیا ہوتی آج دل جلانے کا من نہیں کیا میرا उस के हर इरादे पर था यक़ीं मुझे लेकिन उस को आज़माने का मन नहीं किया मेरा اُس کے ہر ارادے پر تھا یقیں مجھے لیکن اُس کو آزمانے کا دل نہیں کیا میرا ले गया वो साथ अपने सारे सुर मोहब्बत के फिर वो गीत गाने का मन नहीं किया मेरा لے گیا وہ ساتھ اپنے سارے سُر محبت کے پھر وہ گیت گانے کا من نہیں کیا میرا आँधियाँ हक़ीक़त की तेज़ थीं बहुत लेकिन क़स्र-ए-ख़्वाब ढाने का मन नहीं किया मेरा آندھیاں ح

लगा कर दिल की बाज़ी राहत-ओ-तस्कीन खो डालीं

लगा कर दिल की बाज़ी राहत-ओ-तस्कीन खो डालीं अनाड़ी है , वफ़ा के खेल में आँखें भिगो डालीं لگا کر دل کی بازی راحت و تسکین کھو ڈالیں اناڑی ہے، وفا کے کھیل میں آنکھیں بھگو ڈالیں कोई कोंपल तमन्ना की उभरती ही नहीं यारो यहाँ तन्हाइयों की कितनी फ़स्लें हम ने बो डालीं کوئی کونپل تمنا کی ابھرتی ہی نہیں یارو یہاں تنہائیوں کی کتنی فصلیں ہم نے بو ڈالیں सुनहरी सुबह की किरनों ने चूमा है उन्हें आ कर शब-ए-बेताब ने जो शबनमी लड़ियाँ पिरो डालीं سنہری صبح کی کرنوں نے چوما ہے انہیں آ کر شبِ بےتاب نے جو شبنمی لڑیاں پرو ڈالیں लिया है इंतक़ाम ऐसे भी अक्सर हम ने तूफ़ाँ से किनारों तक पहुँच कर कश्तियाँ ख़ुद ही डुबो डालीं لیا ہے انتقام ایسے بھی اکثر ہم نے طوفاں سے کناروں تک پہنچ کر کشتیاں خود ہی ڈبو ڈالیں मुझे तनहाई की सौग़ात दी , फिर मेरी ख़िल्वत के हर इक लम्हे में कितनी कर्ब की सदियाँ समो डालीं مجھے تنہائی کی سوغات دی، پھر میری خلوت کے ہر اک لمحے میں کتنی کرب کی صدیاں سمو ڈالیں कोई क़ीमत लगा पाया कहाँ इन की मुक़द्दर भी निगह ने सोज़न-ए-मिज़गाँ में जो लड़ियाँ पिरो डालीं ک

क्या मिला तश्नालबी से, आजिज़ी से क्या मिला

क्या मिला तश्नालबी से , आजिज़ी से क्या मिला औरतों को ख़ल्क़ की इस महवरी से क्या मिला کیا ملا تشنہ لبی سے عاجزی سے کیا ملا عورتوں کو خلق کی اس مہوری سے کیا ملا हुस्न-ए-लामहदूद की इक बेनियाज़ी के सिवा आशिक़ी से क्या मिला है , बन्दगी से क्या मिला حسنِ لامحدود کی اک بےنیازی کے سوا عاشقی سے کیا ملا ہے، بندگی سے کیا ملا कोई क्यूँ सुनता हमारी बेज़ुबानी की सदा इक घुटन है , और हम को ख़ामुशी से क्या मिला کوئی کیوں سنتا ہماری بےزبانی کی صدا اک گھٹن ہے، اور ہم کو خامشی سے کیا ملا झूठ , ख़ूँरेज़ी , तमाशा , तल्ख़ियाँ , बदकारियाँ क्या कहें , इंसानियत को इस सदी से क्या मिला جھوٹ، خوں ریزی، تماشہ، تلخیاں، بدکاریاں کیا کہیں، انسانیت کو اس صدی سے کیا ملا लूट कर सारा ख़ज़ाना इस को बंजर कर दिया इस ज़मीं को देख लीजे , आदमी से क्या मिला لوٹ کر سارا خزانہ اس کو بنجر کر دیا اس زمیں کو دیکھ لیجے آدمی سے کیا ملا रेगज़ारों से लिपटते आबले सुलगा किए ज़िन्दगी , तुझ को तेरी आवारगी से क्या मिला ریگزاروں سے لپٹتے آبلے سلگا کئے زندگی، تجھ کو تری آوارگی سے کیا ملا