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Showing posts from February 24, 2017

ये दौर-ए-इंतेख़ाब है

मिली हैं ज़र्रीं नद्दियाँ , दो आब पर शबाब है हैं हुक्मरान सर नगूँ , ये दौर-ए-इंतेख़ाब है सियासतें ये वोट की , करामतें ये नोट की बरसता इल्तेफ़ात है , शराब है , कबाब है झुकाए सर को सब खड़े हैं सद्र-ए-आला के क़रीं ये कुर्सियों का मो ’ जिज़ा कि लब पे जी जनाब है न आना इस फ़रेब में ये जानलेवा जाल है सँभलना बुलबुलो ज़रा , शिकार पर उक़ाब है करें तो अब करें भी क्या मिले न कोई रास्ता है चारों सिम्त बेबसी अवाम में इताब है तिजोरियों में कैश है , ये रिश्वतों का ऐश है चमक रही हैं सूरतें न शर्म न हिजाब है हैं हुक्मरान बेहया तो सद्र काठ का चुग़द गिला करें तो किस से हम कि वक़्त ही ख़राब है ज़र्रीं – सुनहरी , दो आब – दो हिस्सों में बंटी हुई धारा , हुक्मरान – राज करने वाले , सर नगूँ – सर झुकाए हुए , दौर-ए-इंतेख़ाब - चुनाव का वक़्त , इल्तेफ़ात – मेहरबानी , सद्र-ए-आला – आला कमान , मो ’ जिज़ा – चमत्कार , अवाम – जनता , इताब – ग़ुस्सा , हिजाब – शर्म , सद्र – अध्यक्ष , चुग़द – उल्लू , गिला – शिकायत 

जो पहले थी, सो अब भी है

ग़रीबी और बेकारी , जो पहले थी , सो अब भी है वही जीने की लाचारी , जो पहले थी , सो अब भी है भरी नोटों से अलमारी जो पहले थी , सो अब भी है वही लीडर की बटमारी , जो पहले थी , सो अब भी है कभी सुरसुर , कभी खुरखुर , कभी फुर्री , कभी सीटी वो खर्राटों की बीमारी जो पहले थी सो अब भी है कभी भड़भड़ , कभी तड़तड़ , कभी टुइयाँ , कभी ठुस्की वो बदहज़्मी की बमबारी जो पहले थी सो अब भी है वही ऐश और वही इशरत , वही स्विस बैंक के खाते वो कुछ लोगों की मक्कारी जो पहले थी सो अब भी है है लक़दक़ पैरहन , लेकिन है दिल कालिख से भी काला वही उनकी सियहकारी , जो पहले थी , सो अब भी है वही हैं पार्टियाँ दो चार बस ले दे के चोरों की वही वोटर की लाचारी , जो पहले थी , सो अब भी है वही कुर्सी की खेंचातान , वो तादाद की बाज़ी वो मोहरों की ख़रीदारी जो पहले थी सो अब भी है तअस्सुब मिट चुका , अदना ओ आला सब बराबर हैं मगर परजा की त्योहारी जो पहले थी , सो अब भी है कभी जम्हूरियत का इक सुनहरा ख़्वाब देखा था मगर ताबीर तो भारी जो पहले थी सो अब भी है निज़ाम-ए-स्याह में चौपट

कहने को इक हुजूम है, अपना नहीं कोई

कहने को इक हुजूम है , अपना नहीं कोई इंसाँ का आज इंसाँ से रिश्ता नहीं कोई अब यादगार-ए-दौर-ए-गुज़िश्ता नहीं कोई सीने में अब तो ज़ख़्म भी सजता नहीं कोई दर्द-ए-ग़म-ए-हयात का चारा नहीं कोई तारीक रात और सितारा नहीं कोई शायद ग़म-ए-हयात से तंग आ चुका था वो यूँ मुफ़्त अपनी जान तो देता नहीं कोई बच्चों की आस , माँ की तड़प हारने लगी चूल्हे में अब वहम का शरारा नहीं कोई सब ही मक़ीम बस्ती के शायद हुए तमाम अब तो यहाँ मकान भी जलता नहीं कोई इंसानियत सिसकती है , बेहिस है आदमी अब कोई हादसा हो , दहलता नहीं कोई घर लुट चुके हैं , सू-ए-फ़लक देखते हैं सब ग़म की ये इंतेहा है कि रोता नहीं कोई ये ज़लज़ले की साअतें , तूफ़ान का ये क़हर है ख़ौफ़ का ये हाल कि सोता नहीं कोई दिल है कि है फफोला तपक जाता है अक्सर नश्तर भी दिल पे अब तो लगाता नहीं कोई ये कर्ब बेहिसी का कहीं जान न ले ले मुद्दत से दिल में दर्द भी जागा नहीं कोई दौर-ए-जदीद , मक्र-ओ-ख़ुदी-ओ-बरहनगी “ मुमताज़ ” इस मरीज़ का चारा नहीं कोई   दौर-ए-गुज़िश्ता – बीटा हुआ वक़्त , चारा – इलाज , तारीक – अँ

हस्ती बिखर गई है

दिल-ए-शिकस्ता के टूटे टुकड़ों में बँट के हस्ती बिखर गई है ख़ुद अपनी ही ज़ात के अँधेरों में मेरी हस्ती उतर गई है ये ज़ीस्त का बेकराँ समंदर , कई तलातुम निहाँ हैं अंदर लड़ी है मौजों से जो बराबर तो अब ये कश्ती बिखर गई है ज़मीन-ए-सहरा ने है संभाला ग़म-ए-हवादिस ने इसको पाला अज़ाब-ए-हस्ती में जब है ढाला तो हर तमन्ना निखर गई है ये दोस्तों की इनायतें हैं , क़रीब रह कर भी फ़ासले हैं जुदा जुदा सारे रास्ते हैं , ये उम्र-ए-रफ़्ता किधर गई है हमारी हस्ती थी क्या मिसाली थी अपनी हर बात कल निराली मगर दिल-ओ-ज़हन अब हैं ख़ाली , है ज़िन्दा तन , रूह मर गई है वो बेकराँ लम्हा-ए-मोहब्बत था जिसमें आलम , वो एक साअत अभी तलक ज़िन्दा है वो लज़्ज़त , वहीं ये हस्ती ठहर गई है हमीं जहाँ से गुज़र गए हैं कि दिल के जज़्बात मर गए हैं कि ज़ख़्म सारे ही भर गए हैं कि रूह भी अबके मर गई है अजीब आलम में अब ये दिल है कि बेहिसी अब तो मुस्तक़िल है हर आरज़ू नज़्र-ए-ख़ून-ए-दिल है कि हश्र से जैसे डर गई है जो अब हैं “ मुमताज़ ” चंद लम्हे इन्हें तो जीने की आरज़ू है कहाँ वो अंदाज़ ज़िन्दगी के , हयात की चाह