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Showing posts from March 8, 2017

बचपन की एक ग़ज़ल - दूर रह कर भी दिल में रहते हैं

दूर रह कर भी दिल में रहते हैं आप आँखों के तिल में रहते हैं ग़म-ए-दौराँ से छुप छुपा कर हम तेरी पलकों के ज़िल में रहते हैं हम सियहबख़्तों के तारीक नसीब उनकी आँखों के तिल में रहते हैं कितने शोले , शरारे , अंगारे दिल की बर्फ़ानी सिल में रहते हैं भूल जाएँ हम उनको लेकिन वो जिस्म के आब-ओ-गिल में रहते हैं अब भी “ मुमताज़ ” हज़ारों अरमाँ इस दिल-ए-मुज़महिल में रहते हैं ग़म-ए-दौराँ – दुनिया का ग़म , ज़िल – साया , सियहबख़्त – काली क़िस्मत , तारीक – अँधेरे , शरारे – चिंगारियाँ , आब-ओ-गिल – पानी और मिट्टी , मुज़महिल – उदास 

क्यूँ इतनी ख़ामोश है ऐ मेरी तन्हाई, कुछ तो बोल

क्यूँ इतनी ख़ामोश है ऐ मेरी तन्हाई , कुछ तो बोल रात की इस वुसअत में आ , अब दिल के गहरे राज़ तो खोल जंगल जंगल , सहरा सहरा तेरा ये बेसिम्त सफ़र भटकेगी कब तक यूँ ही पागल , सौदाई , यूँ मत डोल ये जदीद दुनिया है , ग़रज़परस्ती अब फ़ैशन में है प्यार , वफ़ा , मेहनत , ख़ुद्दारी , छोड़ो , इनका क्या है मोल आज के दौर में जीना , और फिर हँसना , हिम्मत वाले हो पहनोगे “ मुमताज़ ” कहाँ तक ये ख़ुशआहंगी का ख़ोल वुसअत – फैलाव , बेसिम्त – दिशा विहीन , सौदाई – पागल , जदीद – आधुनिक , ग़रज़परस्ती – ख़ुदग़रज़ी , ख़ुशआहंगी – खुशमिज़ाजी

एक पुरानी ग़ज़ल - मैं भी सज़ा दूँ तुझ को ऐसी

मैं भी सज़ा दूँ तुझ को ऐसी , काँप उठे तेरी हस्ती खो जाऊँ यूँ , तू ढूँढे और मिले न मेरा साया भी आज घटा फिर टूट के बरसी , कच्चे घरों में लोग डरे खंडर खंडर शोर उठा , फिर आज कोई दीवार गिरी कितने मोती टूट के बिखरे , दिल का ख़ज़ाना लुटता रहा ख़ाली आँखें , ख़ाली दामन , ख़ाली हाथ रहे बाक़ी भीड़ जमा थी , हंगामा बरपा था साहिल पर यारो शायद कोई भँवर खा गई फिर इक आवारा कश्ती ये तो क़ुसूर हमारा था , हम को थी तवक़्क़ोअ दुनिया से ये क्या अपना दर्द समझती , गुम अपनी रफ़्तार में थी रात बहुत तारीक है , दिल रौशन रक्खो “ मुमताज़ ” अभी बार तुम्हारे दोश पे है माज़ी का , मुस्तक़बिल का भी तवक़्क़ोअ – उम्मीद , तारीक – अँधेरी , दोश – कंधा , माज़ी – अतीत , मुस्तक़बिल – भविष्य 

जाते जाते उसने हम पर ये करम भी कर दिया

जाते जाते उसने हम पर ये करम भी कर दिया दिल को कुछ ख़ूँरंग तोहफ़े , आँख को गौहर दिया नज़्र-ए-आतिश कर दिया घर रौशनी के वास्ते तेरी इक ज़िद ने मेरे घर में अँधेरा कर दिया अब गिला क्यूँ है अगर किरचों में टूटा है वजूद हम ने ख़ुद ही दोस्तों के हाथ में पत्थर दिया ठोकरों पर मैं ने रक्खा जाह-ओ-हश्मत को सदा मेरी ज़िद ने मुझको ये काँटों भरा बिस्तर दिया ज़ख़्म-ए-दिल , ज़ख़्म-ए-जिगर , ज़ख़्म-ए-तमन्ना , ज़ख़्म-ए-रूह उसने कितनी बख़्शिशों से मेरा दामन भर दिया सर कुचल कर रख दिया मेरी अना का बारहा उसने मेरी सादगी का ये सिला अक्सर दिया रंग जब लाया जुनूँ तो पैरहन अपना तमाम ख़ुद ही हमने अपने हाथों खून से तर कर दिया चाहता है दिल इजाज़त फिर तड़पने के लिए हाथ फिर “ मुमताज़ ” उसने ज़ख़्म-ए-दिल पर धर दिया गौहर – मोती , नज़्र-ए-आतिश – आग के हवाले , गिला – शिकायत , अना – अहम , बारहा – बार बार , सिला – बदला , जुनूँ – पागलपन , पैरहन – लिबास 

हर एक याद में जो कहकशां समेट लाए हैं

हर एक याद में जो कहकशां समेट लाए हैं पलक पलक पे कितने ही सितारे झिलमिलाए हैं कहीं न दिल की किरचियों से उस का पाँव ज़ख़्मी हो हम एहतियात से किरच किरच समेट लाए हैं अना की हद के इस तरफ़ न आ सकें सदाएं भी हर एक राब्ता हम अब के बार तोड़ आए हैं ज़मीन तंग जो हुई , तो आरज़ू के वास्ते ज़मीं पे आज हम फ़लक को भी उतार लाए हैं झुका दिया है सर को फिर तेरी रज़ा के सामने तेरी रज़ा पे सर सदा ही ख़म तो करते आए हैं अना की सरज़मीन पर न कोई शहर अब बसे जला के आरज़ूओं का वो शहर छोड़ आए हैं ज़रा सी आँख जो लगी तो चौंक चौंक हम गए परेशां ख़्वाब कैसा उस के दर से ले के आए हैं कहकशां-आकाश गंगा , अना-अहम् , सदाएं- आवाजें , राब्ता- कानटेक्ट , आरज़ू- इच्छा , फ़लक- आकाश , रज़ा- मर्ज़ी , ख़म- झुकाना , परेशां ख्व़ाब- बिखरा हुआ सपना