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Showing posts from March 13, 2017

हम ने सज़ा ये पाई है अपने शआर की

हम ने सज़ा ये पाई है अपने शआर की गुम हो गई धुएँ में तजल्ली निहार की तेरा ख़याल भी न जिसे पार कर सका दीवार थी बुलंद ग़म-ए-रोज़गार की ये क़ैद भी ख़लल है मेरे ही दिमाग़ का मैं ख़ुद ही हूँ गिरफ़्त में अपने हिसार की सोचों में उसकी उलझा रहे ज़हन हमेशा है एक मोअम्मा ये जलन दिल फ़िगार की आहट ये किसकी आती है उजड़े मकान से ये किसने मेरी डूबती धड़कन शुमार की दुनिया में ये ख़ुलूस की हालत है दोस्तो हो जुस्तजू में जैसे कि ताइर शिकार की “ मुमताज़ ” दिल जो धड़का तो एहसास हुआ है है आँच अभी राख में बुझते शरार की शआर – चलन , तजल्ली – रौशनी , निहार – सुबह , ग़म-ए-रोज़गार – रोज़मर्रा के दुख , ख़लल – सनक , गिरफ़्त – पकड़ , हिसार – घेरा , मोअम्मा – पहेली , फ़िगार – घायल , शुमार की – गिनी , ख़ुलूस – शुद्धता , ताइर – बाज़ , शरार – अंगारा 

तो इस तलाश का भी वो ही अंजाम हुआ जो होना था

तो इस तलाश का भी वो ही अंजाम हुआ जो होना था जो क़ैद थी रेत हथेली में , उसको तो फिसल कर खोना था देखे जो ख़्वाब अधूरे थे , जो शाम मिली वो बोझल थी सरमाया था जो इन आँखों का , वो एक ही ख़्वाब सलोना था राहें तो बहुत आसाँ थीं मगर जिस जगह क़याम किया हमने आतिश का नगर था , दर्द का घर , काँटों पे हमें अब सोना था क्या साथ हमारे बंदिश थी , कैसी थी तुम्हारी मजबूरी छोड़ो अब इस अफ़साने को वो हो के रहा जो होना था रातों की वुसअत और उसपर आसान न था ये काम भी कुछ बिखरे थे फ़लक पर जो तारे , पलकों में उन्हें पिरोना था एहसास की शिद्दत से अब तक “ मुमताज़ ” मिली न निजात हमें अब वो भी भरा है अश्कों से जो दिल का तही इक कोना था क़याम – ठहरना , आतिश – आग , वुसअत – विशालता , फ़लक – आसमान , निजात – छुटकारा , तही – खाली

कुछ जवाज़ उस के तसव्वुर में भी दिल पाता नहीं

कुछ जवाज़ उस के तसव्वुर में भी दिल पाता नहीं  किस तरह उस को भुलाऊं , कुछ समझ आता नहीं बन के चिंगारी बरसता है ख़यालों पर , कि अब अब्र बन कर वो तसव्वुर पर कभी छाता नहीं हर कहीं है इक जलन , इक कश्मकश , सौ वहशतें अब कोई मंज़र हमारे दिल को बहलाता नहीं ले गया वो साथ अपने ख़ुशबुओं का क़ाफ़िला फूल कोई भी खिले गुलशन को महकाता नहीं चार सू है इक सियाही , हर तरफ तारीकियाँ किस तरफ जाएं कि जब कुछ भी नज़र आता नहीं हम को अपने दिल से है "मुमताज़" बस ये ही गिला अक़्ल आ जाती तो धोका इस क़दर खाता नहीं जवाज़-सही होना , तसव्वुर-कल्पना , तारीकियाँ-अँधेरे 

अलम सर फोड़ लें, सब हसरतें रंजूर हो जाएं

अलम सर फोड़ लें , सब हसरतें रंजूर हो जाएं हमारी एक हिचकी से सभी ग़म दूर हो जाएं अना के सब घरोंदे एक पल में चूर हो जाएं हम अपनी हसरतों से इस क़दर मजबूर हो जाएं हर इक दर्द ओ अलम , हर रंज से अब दूर हो जाएं हम अपनी वहशतों में इस क़दर महसूर हो जाएं तड़पने की इजाज़त हम अता कर दें अगर दिल को तो ख़्वाबों के ये शीशे गिर के चकनाचूर हो जाएं अना का सर कुचलने से तो कुछ हासिल नहीं होगा तक़ाज़ा रंजिशों का है कि हम मग़रूर हो जाएं मेरी हस्ती न हो तो ज़ख़्मी हो जाए अना उस की न वो जलवा हो तो आँखें मेरी बेनूर हो जाएं गुज़िश्ता याद का "मुमताज़" गर आसेब लग जाए तमन्नाओं के ये खंडर अभी मसहूर हो जाएं अलम-दर्द , रंजूर-दुखी , अना-अहम् , महसूर-दायरे में बंद , अता कर दें- बख्श दें , मगरूर-घमंडी , बेनूर-अँधेरा , गुज़िश्ता-बीता हुआ , आसेब- आत्मा का क़ब्ज़ा , मसहूर- जादू से प्रभावित