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Showing posts from February 22, 2017

दुपट्टा मेरा

आज मैं ने टी वी पर देखा , एक नीम उरियाँ नाज़नीन लहरा लहरा कर गा रही थी , " इन्हीं लोगों ने लई लीन्हा दुपट्टा मेरा". ये सुन कर मेरे ज़हन में चाँद सवालात ने शोर मचाया। बराए मेहरबानी किसी के पास इन सवालों के जवाब हों तो मुझे ज़रूर बताएं ..... 1. इस लड़की को शॉर्ट्स के साथ दुपट्टा पहनने की ज़रुरत क्यूँ पड़ी , क्या ये कोई नया फैशन है ???? मुझे लगता है कि शायद इसी लिए सिपहिया ने उस का दुपट्टा छीन लिया 2. जब बाज़ार में सिले सिलाए कपडे इफरात में मिल रहे हैं तो इस को दुपट्टे से बदन ढकने की ज़रुरत क्यूँ पड़ी , दुपट्टा तो दुपट्टा है , सिपहिया न छीनता तो हवा में भी तो उड़ सकता था। 3. दुपट्टे के छिन जाने का ऐलान करने के लिए नाचना ज़रूरी था क्या ???? 4. वो लडकियाँ जो उस के साथ नाच रही थीं , उन का दुपट्टा भी छिन गया था क्या , या सिर्फ इस लड़की को तसल्ली देने के लिए वो इसके साथ नाच रही थीं ??? 5. ये लड़की हमें बेवक़ूफ़ बना रही है क्या , क्यूँ कि जिन बजजवा , रंगरेजवा और सिपहिया ने उस का दुपट्टा छीना , उन्हें ही गवाह क्यूँ बनाना चाहती है ,  भला वो अपने गुनाह का इक़रार क्यूँ करेंगे ??? अरे कोई त

रंग कहीं सौ सौ बिखरे हैं और कहीं वीराने हैं

रंग कहीं सौ सौ बिखरे हैं और कहीं वीराने हैं चेहरे की इक एक शिकन में पिनहाँ सौ अफसाने हैं अब ये सफ़र की आख़िरी मंज़िल कितनी कुशादा लगती है अब भी ठहरना हम को गराँ है हम कैसे दीवाने हैं ज़ख़्म गिने , मरहम रक्खे , ये फ़ुरसत किसको है यारो ज़ीस्त के उलझे उलझे धागे हमको अभी सुलझाने हैं इश्क़ में कितने पेच-ओ-ख़म हैं , ग़म में कितनी तारीकी फिर भी कशिश है इनमें कैसी , ये अनमोल ख़ज़ाने हैं ज़िन्दगी भी है एक अज़ीयत फिर भी कितनी प्यारी है जीने के इस दुनिया को अंदाज़ अभी सिखलाने हैं वक़्त-ए-सफ़र है , हसरत से तकते हैं दर-ओ-दीवार को हम नक़्श इन्हीं पर माज़ी के मुमताज़ कई अफ़साने हैं पिनहाँ – छुपे हुए , कुशादा – विशाल , ज़ीस्त – ज़िन्दगी , पेच-ओ-ख़म – घुमाव और मोड़ , तारीकी – अँधेरा , कशिश – आकर्षण , अज़ीयत – यातना , माज़ी – अतीत 

ग़म के ख़ज़ाने, दर्द की दौलत बाक़ी है

ग़म के ख़ज़ाने , दर्द की दौलत बाक़ी है अब इस दिल में सिर्फ़ मोहब्बत बाक़ी है वक़्त के हाथों जिस को लुटा डाला था कभी अब भी दिल में घर की हाजत बाक़ी है अब जो दुआ को हाथ उठाएँ , क्या माँगें जीने की अब कौन सी सूरत बाक़ी है रस्ता किसका देख रही हैं अब आँखें आने को अब कौन सी आफ़त बाक़ी है रात की गहरी तारीकी है , और हम हैं आँखों में बस नींद की चाहत बाक़ी है टूटे फूटे दिल के कुछ टुकड़े हैं बस दामन में बस एक ये दौलत बाक़ी है चंद लकीरें चेहरे पर , कुछ हाथों में ले दे कर बस इतनी क़िस्मत बाक़ी है सीने में साँसें हैं दिल में धड़कन भी जिस्म में थोड़ी थोड़ी हरारत बाक़ी है अब हमको “ मुमताज़ ” किसी से क्या शिकवा ये क्या कम है सूत-ओ-समाअत बाक़ी है हाजत – ज़रूरत , तारीकी – अँधेरा , हरारत – गर्मी , शिकवा – शिकायत , सूत-ओ-समाअत – बोलने और सुनने की क्षमता 

ये आलम बेहिसी का, ये दिल-ए-हस्सास के छाले

ये आलम बेहिसी का , ये दिल-ए-हस्सास के छाले तमन्ना की ये महरूमी हमें पागल न कर डाले अभी तो ज़ख़्म देखे हैं बदन के , और ये आलम है अभी देखे कहाँ तुम ने हमारी रूह के छाले ये उलझी उलझी हर साअत , ये टूटा फूटा हर लम्हा तमन्ना देखिये अब ज़िन्दगी को किस तरह ढाले करेगा तो वही आख़िर जो इसने सोच रक्खा है सुनेगा कुछ न , ज़िद्दी है , तू दिल को लाख समझा ले कहाँ इज़हार-ए-ग़म , कैसी शिकायत , कौन सी हसरत सभी जज़्बात क़ैदी हैं ज़ुबाँ पर हैं पड़े ताले परस्तिश करती है मतलब की बेहिस अजनबी दुनिया मिलेगा कुछ न तुझको इस जहाँ से , आरज़ू वाले जहाँ को एक दिन “ मुमताज़ ” तन्हा छोड़ देंगे हम हमें ढूँढेंगे हर जानिब हमारे चाहने वाले बेहिसी – भावना शून्यता , हस्सास – भावुक , महरूमी – कमी , रूह – आत्मा , साअत – घड़ी , परस्तिश – पूजा 

हर तरफ़ वीरानियाँ, हर तरफ़ तारीक रात

हर तरफ़ वीरानियाँ , हर तरफ़ तारीक रात दूर तक फैली हुई बिखरी बिखरी सी हयात आरज़ू के दश्त में एक भी पैकर न ज़ात शोर से सन्नाटों के गूँजते हैं जंगलात कब से करते हैं सफ़र राह है फिर भी तवील बढ़ रहा है फ़ासला , चल रही हैं मंज़िलात याद है हमको अभी लम्हा भर का वो अज़ाब वहशतों के हाथ से खाई थी जब हमने मात चार पल का वो सुकूँ दे गया कितने अज़ाब रूह तक चटखा गया था ये कैसा इल्तेफ़ात ज़िन्दगी इक ख़्वाब है , इश्क़ इक सूखा दरख़्त हसरतें सब रायगाँ , आरज़ू है बेसबात कैसे अब पाएँ निजात क़ैद से “ मुमताज़ ” हम तोड़ डालेंगी हमें ज़िन्दगी की मुश्किलात तारीक - अँधेरी , हयात – ज़िन्दगी , दश्त – जंगल , पैकर – बदन , तवील – लंबा , अज़ाब – यातना , इल्तेफ़ात – मेहरबानी , रायगाँ – बेकार , आरज़ू – ख़्वाहिश , बेसबात – नश्वर , निजात – छुटकारा