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Showing posts from September 25, 2018

आँखों में तीर बातों में ख़ंजर लिए हुए

आँखों में तीर बातों में ख़ंजर लिए हुए बैठा है कोई शिकवों का दफ़्तर लिए हुए शीशागरी का शौक़ मुझे जब से हुआ है दुनिया है अपने हाथों में पत्थर लिए हुए जाने कहाँ कहाँ से गुज़रते रहे हैं हम आवारगी फिरी हमें दर दर लिए हुए लगता है चूम आई है आरिज़ बहार के आई नसीम-ए-सुबह जो अंबर लिए हुए क्या क्या सवाल लरज़ाँ थे उस की निगाह में लौट आए हम वो आख़िरी मंज़र लिए हुए दिल में धड़कते प्यार की अब वुसअतें न पूछ क़तरा है बेक़रार समंदर लिए हुए “मुमताज़” संग रेज़े भी अब क़ीमती हुए बैठे हैं हम निगाहों में गौहर लिए हुए

झूटी बातों पर रोया सच

झूटी   बातों   पर   रोया   सच हर   बाज़ी   में   जब   हारा   सच कुछ   तो   मुलम्मा   इस   पे   चढाओ बेक़ीमत   है   ये   सादा   सच झूठ   ने   जब   से   पहनी   सफेदी छुपता   फिरता   है   काला   सच अब   है   हुकूमत   झूठ   की   लोगो दर   दर   भटके   बंजारा   सच सच   सुनने   की   ताब   न   थी   तो क्यूँ   आख़िर   तुम   ने   पूछा   सच बन   जाए   जो   वजह   ए तबाही " बेमक़सद   है   फिर   ऐसा   सच" मिसरा   क्या   "मुमताज़ " मिला   है हम   ने   लफ़्ज़ों   में   ढाला   सच jhooti baatoN par roya sach har baazi meN jab haara sach kuchh to mulamma is pe chadhaao beqeemat hai ye saada sach jhoot ne jab se pahni safedi chhupta phirta hai kalaa sach ab hai hukoomat jhoot ki logo dar dar bhatke banjaara sach sach sunne ki taab na thi to kyuN aakhir tum ne poochha sach ban jaae jo wajh e tabaahi "bemaqsad hai phir aisa sach" misra kya "Mumtaz" mila hai ham ne lafzoN meN dhaala sach

रेग-ए-रवाँ

सुना था ये कभी मैं ने मोहब्बत का जो दरिया है कभी सूखा नहीं करता मगर ये सच नहीं यारो कभी ऐसा भी होता है मोहब्बत का ये दरिया धीरे धीरे सूख जाता है वफाओं की हरारत से जफाओं की तमाज़त से अदाकारी की शिद्दत से रियाकारी की जिद्दत से कहीं दिल में कोई रेग-ए-रवाँ तशकील पाता है

उम्मीद का मेरे दिल पर हिसार है कि नहीं

उम्मीद का मेरे दिल पर हिसार है कि नहीं नदी भी कोई सराबों के पार है कि नहीं वो कशमकश में है , मैं भी इसी ख़याल में हूँ सफ़र के तूल में राह ए फ़रार है कि नहीं मैं जान देने को दे दूँ , प ये तो वाज़ेह कर तेरे निसारों में मेरा शुमार है कि नहीं मुझे तो ज़ख़्मी अना का सुरूर है कब से शराब-ए-ज़ात का तुझ को ख़ुमार है कि नहीं जो तुझ को रहना है दिल में तो सोच ले पहले ज़मीन ए जंग तुझे साज़गार है कि नहीं मैं ढूँढती हूँ ग़ुरूर-ए-अना की आँखों में मेरे क़लम में अभी तक वो धार है कि नहीं यही सवाल सताता है दिल को हर लम्हा मेरी तलाश में अब वो बहार है कि नहीं चलेगा सिलसिला कब तक ये आज़माइश का मेरी वफा का तुझे ऐतबार है कि नहीं हम आ तो पहुँचे मगर सोचते हैं अब "मुमताज़" जहाँ पहुँचना था ये वो दयार है कि नहीं