आँखों में तीर बातों में ख़ंजर लिए हुए
आँखों में तीर बातों में ख़ंजर लिए हुए बैठा है कोई शिकवों का दफ़्तर लिए हुए शीशागरी का शौक़ मुझे जब से हुआ है दुनिया है अपने हाथों में पत्थर लिए हुए जाने कहाँ कहाँ से गुज़रते रहे हैं हम आवारगी फिरी हमें दर दर लिए हुए लगता है चूम आई है आरिज़ बहार के आई नसीम-ए-सुबह जो अंबर लिए हुए क्या क्या सवाल लरज़ाँ थे उस की निगाह में लौट आए हम वो आख़िरी मंज़र लिए हुए दिल में धड़कते प्यार की अब वुसअतें न पूछ क़तरा है बेक़रार समंदर लिए हुए “मुमताज़” संग रेज़े भी अब क़ीमती हुए बैठे हैं हम निगाहों में गौहर लिए हुए