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Showing posts from February 21, 2017

ज़ख़्मी परों की उड़ान - अदबी किरन

पर सलामत हों तो उड़ना कोई बड़ा काम नहीं है । बात तो तब है जब ज़ख़्मी परों से आसमान की ऊँचाइयाँ छूने का हौसला किया जाए । अदबी किरन इस हौसले का साकार रूप है । यह हौसला , जो यूसुफ़ खान साहिल में कूट कूट कर भरा हुआ है । यूसुफ़ ख़ान की उम्र अभी मात्र 25 वर्ष की है । उस पर तक़दीर का सितम यह कि वह अपाहिज हैं । जी हाँ ! 3 वर्ष की उम्र में उन्हें बुख़ार हुआ , और वह बुख़ार ऐसा मनहूस था कि उन्हें हमेशा के लिए अपाहिज बना गया ।  लाख इलाज के बावजूद उन के पाँव न ठीक होने थे , न हुए । वे हमेशा के लिए व्हील चेयर के क़ैदी बन गए । क़िस्मत पर किसी का बस नहीं चलता । समय अपनी ही चाल से चलता है । लोगों को समय के साथ क़दम मिला कर चलना पड़ता है । चाहे उत्साह से चलें , या गिरते , पड़ते , हाँफते , लड़खड़ाते । जो लोग इस कोशिश में कामयाब हो जाते हैं , वे अपनी मंज़िल पा लेते हैं । जो गिर पड़ते हैं , वक़्त उन्हें ठुकराता हुआ आगे बढ़ जाता है । कोई उस के साथ चल पाएगा या नहीं , इस की परवाह वक़्त को कहाँ । तो बस , यूसुफ़ ख़ान भी वक़्त से क़दम मिलाने की कोशिश में यहाँ तक आ पहुंचे , कि आज ग़रीब बच्चों के लिए एक स्कूल चला रहे हैं

राह सुनसान है ताहद्द-ए-नज़र

राह सुनसान है ताहद्द-ए-नज़र और ये ज़ीस्त का तवील सफ़र बारहा टूट कर बिखरती है ज़िन्दगी ऐसे भी जाती है सँवर दर ब दर क्यूँ हयात फिरती है कुछ पता है हमें न कोई ख़बर आबले भर चले हैं अब शायद दिल-ए-आवारा चला आज किधर कैसा आसेब लग गया इस को कितना मसहूर है ये दिल का खंडर और जाएगा ये ख़याल कहाँ एक तू , एक तेरी राहगुज़र चुभते रहते हैं मेरे तलवों में दूर तक बिखरे हुए लाल-ओ-गोहर आँख के सामने है अब मंज़िल अब तो “ मुमताज़ ” है तमाम सफ़र   ताहद्द-ए-नज़र – नज़र की सीमा तक , ज़ीस्त – जीवन , तवील – लंबा , बारहा – बार बार , हयात – जीवन , आबले – छाले , आसेब – भूतबाधा , मसहूर – जादू , लाल-ओ-गोहर – लाल और मोती 

एक सुनहरी दुनिया देखी ख़्वाबों की इल्हामी में

एक सुनहरी दुनिया देखी ख़्वाबों की इल्हामी में आँख खुली तो सामने सच था , रोते थे नाकामी में आज मोहब्बत बिकती है इस दुनिया के बाज़ारों में चलो लगाएँ बोली हम भी प्यार की इस नीलामी में इश्क़ में लाखों ग़म हैं माना , ज़िल्लत है , रुसवाई है सारे आलम की राहत है इस मीठी बदनामी में सारी उम्र की क़ीमत दे कर भी ये सौदा सस्ता था हम यूँ ही अनमोल हो गए , बिक तो गए बेदामी में एक तमन्ना के हाथों हम जाने कब से लुटते हैं दो पल की राहत पाने को इस दौर-ए-हंगामी में जाने बेताबी का कैसा दौर ये हैं “ मुमताज़ ” आया उलझन में दिन बीत रहे हैं , रातें बेआरामी में इल्हामी – आकाशवाणी 

एक पुरानी ग़ज़ल - करप्शन मिटने वाला है

कहीं चोरी , कहीं डाका , हर इक जानिब घोटाला है चलो अब आ गई बारी , करप्शन मिटने वाला है सभी माना धुले हैं दूध के , पर इसका क्या कीजे न वापस ला सके स्विस बैंक में जो माल डाला है हैं बेनीफ़िशियरी में कैसे कैसे आइटम देखो भतीजा है , कोई चाचा , कोई भाई है , साला है ये हसरत है किसी सूरत ज़रा बच्चे बहल जाएँ किसी मजबूर माँ ने आज फिर पानी उबाला है जो ये संसद के सेशन में बंटी है दाल जूतों में ज़रूर इस दाल में यारो कहीं तो कुछ तो काला है हमें क्या बाँट पाएंगे ये फ़ितनासाज़ बलवाई हमारे दिल में मस्जिद है , कलीसा है , शिवाला है है कोई आप , कोई आप का भी बाप निकला है कोई है कंस का मामा , कोई शैताँ की ख़ाला है बटोरा करते हैं दौलत ये दोनों हाथ से यारो कहीं “ मुमताज़ ” डोनेशन , कहीं नोटों की माला है 

ले आईं किस मक़ाम पर हमें हमारी चाहतें

ले आईं किस मक़ाम पर हमें हमारी चाहतें कहाँ गए वो रात दिन , कहाँ गईं वो राहतें ये नफरतों की सरज़मीं प् रंजिशों की बारिशें जलाती जाती हैं दिए अँधेरे में मोहब्बतें ये तपती धूप की चुभन , ये तश्नगी की इन्तहा ये सहरा ए हयात में मोहब्बतों की हाजतें पलक पलक सराब है , नफ़स नफ़स अज़ाब है ये क़तरा क़तरा ज़िन्दगी , ये दर्द ओ ग़म की इशरतें हयात जल के रह गई , वजूद भी झुलस गया ये तपते सहरा का सफ़र , मक़ाम की ये मुद्दतें मिलें तो कैसे मंजिलें , अभी सफ़र तवील है शिकस्ता पा है ज़िन्दगी , थकी थकी हैं हसरतें ये राहतों की इन्तेहा , तड़पती है हर इक ख़ुशी हमें मिटाए देती हैं हयात की इनायतें वो "नाज़ाँ" ख़्वाब ख़्वाब सा सफ़र तमाम हो गया न जाने खो गईं कहाँ वो क़ुर्बतें , वो चाहतें तश्नगी-प्यास , सहरा ए हयात- ज़िन्दगी की मरुभूमि , सराब-मृगतृष्णा , नफ़स-सांस , अज़ाब-यातना , हयात-ज़िन्दगी , शिकस्ता पा- थके हुए पाँव , क़ुर्बतें- नज़दीकियाँ

शौक़ ये आवारगी का, ज़िन्दगी की जुस्तजू

शौक़ ये आवारगी का , ज़िन्दगी की जुस्तजू दश्त-ओ-सहरा में लिए फिरती है मुझको आरज़ू कोशिशें , हिम्मत , इरादे , वक़्त के हाथों मिटे इस जेहाद-ए-ज़िन्दगी में कैसे कैसे जंगजू मरते मरते फिर से ज़िन्दा हो उठीं सौ ख़्वाहिशें दिल की इस बंजर ज़मीं पर हसरतों का ये नमू जब बढ़ी राहत क़दमबोसी को , ठोकर मार दी हमने रक्खी है हमेशा वहशतों की आबरू गर्मी-ए-एहसास से ये रूह तक तपने लगी सहरा-ए-दिल में चली क्या क्या तमन्नाओं की लू इश्क़ की पाकीज़गी महशर में काम आ जाएगी कर रहे होंगे फ़रिश्ते मेरे अश्कों से वज़ू उसका चेहरा भी ख़यालों में नज़र आता नहीं धुंध सी छाई है कैसी आज दिल के चार सू जान कर हम हार बैठे इश्क़ की बाज़ी कि यूँ हसरतें “ मुमताज़ ” हैं अब दिल हुआ है सुर्ख़रू जेहाद – संघर्ष , जंगजू – योद्धा , नमू – फलने फूलने की क्षमता , क़दमबोसी – पाँव चूमना , पाकीज़गी – पवित्रता , महशर – दुनिया का आख़िरी दिन , जब अल्लाह इंसाफ़ करेगा , वज़ू – इबादत के लिए हाथ पाँव धोना , सुर्ख़रू – विजयी