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Ek nai ghazal aap sab ehbaab kii nazr

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kabhi aasha jagaat hai

  कभी आशा जगाता है कभी सपने दिखाता है मेरे दिल के अँधेरों में उजाला झिलमिलाता है   अचानक बैठे बैठे आँख भर आती है , जाने क्यूँ ये कैसा दर्द है , ये कौन ग़म मुझ को रुलाता है   न जाने कौन से वहशतकदे में खो गई हूँ मैं मुझे बस इक यही ग़म रफ़ता रफ़्ता खाए जाता है   दिखा कर आसमां की वुसअतें , पर काट देता है मुक़द्दर इस तरह हर बार मुझ को आज़माता है   जो बरसों बंद हो , उस घर से बदबू आने लगती है जो खुल कर सच न कह पाये वो रिश्ता टूट जाता है   मेरी महरूमियों का आम है चर्चा ज़माने में मुझे "मुमताज़" मेरा अक्स भी अब मुंह चिढ़ाता है