ग़ज़ल - तड़प को हमनवा रूह-ओ-बतन को कर्बला कर लो
तड़प को हमनवा रूह-ओ-बतन को कर्बला कर लो ज़रा कुछ देर को माज़ी से भी कुछ सिलसिला कर लो सियाही जो निगल डाले सरासर रौशनी को भी तो फिर हक़ है कहाँ , बातिल है क्या , ख़ुद फ़ैसला कर लो इबादत नामुकम्मल है , अधूरा है हर इक सजदा असास-ए-ज़हन-ओ-दिल को भी न जब तक मुब्तिला कर लो थकन को पाँव की बेड़ी बना लेने से क्या होगा सफ़र आसान हो जाएगा थोड़ा हौसला कर लो बलन्दी भी झुकेगी हौसले के सामने बेशक जो ख़ू परवाज़ को काविश को अपना मशग़ला कर लो ज़माने भर से नालाँ हो , शिकायत है ख़ुदा से भी कभी “ मुमताज़ ” अपने आप से भी तो गिला कर लो تڑپ کو ہمنوا روح و بطن کو کربلا کر لو ذرا کچھ دیر کو ماضی سے بھی کچھ سلسلہ کر لو سیاہی جو نگل جاے سراسر روشنی کو بھی تو پھر حق ہے کہاں باطل ہے کیا خود فیصلہ کر لو عبادت نامکمّل ہے , ...