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Showing posts from June 23, 2018

ख़्वाब और सच

अगर ऐसा कभी हो तो ? अगर हर ख़्वाब बन जाए हक़ीक़त तो ? तो आख़िर क्या करोगे ? आज ये इक दोस्त ने पूछा तो मेरे ज़हन में इक ज़लज़ला सा आ गया यारो मेरे दिल ने कहा हर ख़्वाब बन जाए हक़ीक़त तो तो ख़्वाबों के हसीं मंज़र सभी वीरानों में तब्दील हो जाएँ हो चारों सिम्त तपते रेगज़ारों की तमाज़त और हर उम्मीद का फिर ख़ून हो जाए बिखर जाए सियाही हर तजल्ली पर हर इक हसरत का चेहरा ज़र्द हो जाए बड़ा ही ख़ौफ़नाक अंजाम हो हर ख़्वाब का यारो तसव्वर ये मुझे वहशतज़दा सा कर गया है मेरा दिल कह रहा है कि जिस दिन ख़्वाब बन जाएँगे सच्चाई मैं उस दिन ख़्वाब बुनना छोड़ दूँगी

अबस हर आरज़ू ठहरी , हैं सारे ख़्वाब बेगाने

अबस   हर   आरज़ू   ठहरी , हैं   सारे   ख़्वाब   बेगाने तसव्वर   बुन   रहा   है   कितने ही   बेबाक   अफ़साने अभी   तो   ज़हन   से   खून ए तमन्ना   साफ़   करना   है अभी   हम   आए   हैं   जज़्बात   की   मय्यत   को   दफ़नाने अजब   सा   इक   नशा   है   अश्क   पीने   में   भी   ऐ   यारो खुले   हैं   ग़म कदों   में   भी   न   जाने   कितने   मैख़ाने सिरा   मिलता   नहीं   उलझी   हुई   इस   ज़िन्दगानी   का न   जाने   कब   से   बैठी   हूँ   मैं   इन   धागों   को   सुलझाने कहाँ   गुम   हो   गया   बचपन   का   वो   मासूम   सा   आलम न   वो   उल्फ़त , न   वो   मस्ती , न   वो   मुखलिस   से   याराने कहीं   ढूंढे   से   भी   अपना   नज़र   आता   नहीं   कोई यहाँ   इस   मोड़   पर   यूँ   तो   सभी   चेहरे   हैं   पहचाने मैं   कब   से   सोच   में   गुम   हूँ , किसे   ढूँढूं , कहाँ   जाऊं न   जाने   क्या   जगह   है   ये , सभी   रस्ते   हैं   अनजाने बड़ी   मुश्किल   से   हम   ने   दिल   का   हर   रेज़ा   संभाला   था हज़ारों   हसरतें   फिर   आ   गई   ह

ज़ुल्म का दिल भी आलम से तार होना चाहिए

ज़ुल्म का दिल भी आलम से तार होना चाहिए तेज़ इतनी तो लहू की धार होना चाहिए तू जो मुख़लिस है तो दुनिया समझेगी पागल तुझे दौर-ए-हाज़िर में ज़रा ऐयार होना चाहिए हर तरफ़ मतलब परस्ती , रहज़नी , हिर्स-ओ-हवस अब तो बेज़ारी का कुछ इज़हार होना चाहिए खाए जाते हैं वतन को चंद इशरत के ग़ुलाम अब किसी सूरत हमें बेदार होना चाहिए जी लिए अब तक बहुत मर मर के लेकिन दोस्तो हम को अब कल के लिए तैयार होना चाहिए क्या मज़ा चलने का गर राहों में पेच-ओ-ख़म न हों रास्ता थोड़ा बहुत दुश्वार होना चाहिए नाम पर मज़हब के अब काफ़ी सियासत हो चुकी अब तअस्सुब का क़िला मिस्मार होना चाहिए कब तलक “ मुमताज़ ” बैठें धर के हम हाथों प हाथ इंकेसारी छोड़ , अब यलग़ार होना चाहिए

छूटूँ तो कशमकश से किसी पल ख़ुदा करे

छूटूँ तो कशमकश से किसी पल ख़ुदा करे आख़िर इलाज-ए-ज़ीस्त करे तो क़ज़ा करे गाड़े हैं दिल में याद ने पंजे कुछ इस तरह सीने में दर्द रोज़-ओ-शबाना उठा करे साँसें भी दिल प रक्खी हैं इक बोझ की तरह कैसे कोई ये क़र्ज़ करे तो अदा करे कैसी ये तश्नगी है कि मिटती नहीं कभी सीने में कैसी आग सी हर पल जला करे कैसी चली है रस्म-ए-फ़रेब-ए-वफ़ा कि अब जो भी मिले वो चेहरा बदल कर मिला करे अब क्या करें कि दिल तो सुकूँ से भी भर गया हंगामा कोई अब तो तबाही बपा करे मुद्दत से हसरतें भी बड़ी सोगवार हैं दिल की भी आरज़ू है कि कोई ख़ता करे पहरे हैं लफ़्ज़ लफ़्ज़ पे , है क़ैद में ज़ुबाँ “ मुमताज़ ” अब कलाम की हसरत भी क्या करे