सांस्कृतिक प्रदूषण

    प्रदूषण और वो भी संस्कृति का?
    जी हाँ! और ये प्रदूषण आजकल हमारे समाज के चप्पे चप्पे मेन फैला दिखाई देता है, और ये सांस्कृतिक प्रदूषण ग्लोबलाइज़ेशन की बयार का साइड एफ़ेक्ट है। इस ग्लोबलाइज़ेशन की आँधी ने सारी दुनिया को एक बड़े से बाज़ार में तब्दील कर दिया है, और इस बाज़ार ने एक नए मुहावरे को जन्म दिया है;
    “जो दिखता है, वो बिकता है
    तो फिर इस बाज़ार में जिसको बिकना है, उसे कुछ दिखाना भी तो पड़ेगा, तो हर कोई ख़ुद को ग्लोबल दिखाने में लगा हुआ है। आज के दौर में बदन उघाडू कपड़े ग्लोबलाइज़ेशन के प्रतीक हैं और इनको धारण करने वाली औरतें डीवा हो गई हैं। देवी से डीवा तक के इस सफ़र में अगर कुछ खोया है तो वो हैं संस्कार। आज अगर कोई लड़की सलवार कमीज़ या साड़ी में मलबूस हो तो उसे तंज़ से बहन जी का ख़िताब दे दिया जाता है, गोया बहन का रिश्ता भी अब गाली हो गया है। तो इस ख़िताब से बचने के लिए लड़कियाँ डीवा बनने के लिए जी जान से तैयार हैं। वैसे ही जैसे देश के कई भागों में भैया का इस्तेमाल गाली के तौर पर किया जाता है। इसी प्रकार अँग्रेजी का इस्तेमाल आज ज़रूरी हो गया है। फॉरवर्ड दिखने के लिए ये ज़रूरी है, चाहे दिल कितना भी आदिम युगीन क्यूँ न हो। और हिन्दी बेचारी तो पहले ही राष्ट्रभाषा होते हुए भी सौतेलापन झेलती आई है। ये तो सोने पर सुहागा हो गया है, आजकल हिन्दी हिन्डी बन गई है और जिबान मोड मोड कर अंग्रेज़ी में बोली जा रही है। हमारा युवा अमरीका की अंधी नक़ल कर के ख़ुद पर फ़ख़्र महसूस करता है, गोया भारतीय होना कोई गुनाह है।

    ये तो महज़ चंद उदाहरण हैं सांस्कृतिक प्रदूषण के और इसके लिए सबसे ज़ियादा ज़िम्मेदार है टीवी, जिसे लोग बुद्धू बक्से के नाम से भी जानते हैं, लेकिन इस बुद्धू बक्से ने भारतीय समाज को बख़ूबी बुद्धू बनाया है। आज मनोरंजन के नाम पर जो रियलिटी शोज़ दिखाए जा रहे हैं या समाजसेवा के नाम पर जो सीरियल्स दिखाए जा रहे हैं वो हमारे सामाजिक ताने बाने को जम कर बिखेर रहे हैं। और हम ख़ामोश हैं क्यूँ कि इसके लिए कहीं न कहीं हम ख़ुद भी ज़िम्मेदार हैं। आख़िर इन शोज़ और सीरियल्स को देखने और कामयाब बनाने वाले हम ही तो हैं। 

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