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Showing posts from July 22, 2018

कोई ख़ुशी भी मिली तो अज़ाब की सूरत

कोई ख़ुशी भी मिली तो अज़ाब की सूरत तमन्ना छलती है मुझ को सराब की सूरत है अब भी क़ैद निगाहों में ख़्वाब की सूरत “खिला खिला सा वो चेहरा गुलाब की सूरत” हज़ार शोरिशें लाया वो ज़ख़्म दे के गया मेरी हयात से गुज़रा शबाब की सूरत करे वो प्यार तो एहसान की तरह अक्सर है इल्तेफ़ात भी उस का इताब की सूरत हमारे जुर्म और अपनी अताएँ गिनता है वो कर रहा है शिकायत हिसाब की सूरत लिखी हुई है कहानी तमाम हर्फ़ ब हर्फ़ फसाना कह गई सारा जनाब की सूरत खुला किया है वो “मुमताज़” हम पे पै दर पै पढ़ा किए हैं उसे हम किताब की सूरत 

बहार फिर से ख़िज़ाओं में आज ढलने लगी

बहार   फिर   से   ख़िज़ाओं   में   आज   ढलने   लगी अभी   खिले   भी   न   थे   गुल , कि रुत   बदलने   लगी ये   रतजगों   का   सफ़र   और   कब   तलक   आख़िर कि   अब   तो   शब   की सियाही   भी   आँख   मलने   लगी ये   बर्फ़   बर्फ़   में   चिंगारियां   सी   कैसी   हैं ये   सर्द   रुत   में   फिज़ा   दिल   की   क्यूँ   पिघलने   लगी जो   इल्तेफात   की   बारिश   ज़रा   हुई   थी   अभी ये   आरज़ूओं   की   बूढी   ज़मीं   भी   फलने   लगी दरून    ए   जिस्म   कोई   आफ़ताब   है   शायद चली   वो   लू   कि   तमन्ना   की   आँख   जलने   लगी सफ़र   का   शौक़   जो   रक्साँ   हुआ , तो   यूँ   भी   हुआ " ज़मीं   पे   पाँव   रखा   तो   ज़मीन   चलने   लगी” फिर   एक   बार   ये   ' मुमताज़ ' ज़ख्म   भरने   लगे फिर   एक   बार   मेरी   ज़िन्दगी   संभलने   लगी बहार = बसंत ऋतु , खिज़ां = पतझड़ , गुल = फूल , शब = रात , सियाही = कालिख , फिजा = माहौल , इल्तेफात = मेहरबानी , आरज़ू = इच्छा , दरून ए जिस्म = बदन के अन्दर , आफताब = सूरज , तमन्ना = इच्छा ,

न कोई दवा न इलाज है, ये मरज़ वो कैसा लगा गया

न   कोई   दवा   न   इलाज   है , ये   मरज़   वो   कैसा   लगा   गया मेरी   साँस   साँस   बिखर   गई , मेरी   ज़िन्दगी   से   वो   क्या   गया ज़रा   बुझ   चली   थी   ये   आग   अभी , वो   हवाएँ   दे   के   जला   गया दिल ए ग़मज़दा   को   उम्मीद   के   कई   ख़्वाब   फिर   वो   दिखा   गया न   तो   होश   है , न   जुनूँ   रहा , न   क़रार   है , न सुकूँ रहा   मेरी   राहतें , मेरी   चाहतें , कहाँ   जाने   सब   वो   छुपा   गया   हुआ   ख़त्म   लो   ये   क़रार   भी , कि सिकुड़ गया ये हिसार भी   सर   ए   रहगुज़र   मुझे   देख   कर   वो   निगाह   आज   चुरा   गया कहीं   चूर   चूर   हैं   हसरतें , कहीं   रेज़ा   रेज़ा   हैं चाहतें मेरे   आबले   न   सिसक   उठें , जो   ये   किरचियाँ   वो   बिछा   गया कोई   अक्ल   ओ   फ़हम   का   सिलसिला , न   तो   फ़िक्र   है , न   कोई   गिला " जो   कहा   गया   वो   सुना   गया , जो   सुना   गया , वो   कहा   गया " जो   वरक़   वरक़   पे   लिखा   है   अब , वही याद है वही नाम   है मेरी   ज़िन्दगी   की   किताब   से   मेरा