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Showing posts from February 28, 2017

रूह है बेहिस, आँखें वीराँ, दिल एहसास से ख़ाली है

रूह है बेहिस , आँखें वीराँ , दिल एहसास से ख़ाली है इस रुत में हर पेड़ बरहना , बिखरी डाली डाली है नफ़रत , आँसू , मक्र-ओ-छलावे , पी जाते हैं हँसते हुए जीने की इस दौर में हमने ये तरकीब निकाली है ख़ुशियाँ , चाहत , सिद्क़-ओ-मोहब्बत , ज़ब्त की दौलत दिल में थी इन जज़्बात की गलियों में दिल अपना आज सवाली है ये भी इमारत एक न इक दिन सीना तान खड़ी होगी जब्र की इस बस्ती में प्यार की नींव जो हमने डाली है याद ने दिल के दरवाज़े पर चुपके से जब दस्तक दी होंठ हँसे , आँखें छलकीं , ये सहर भी कितनी काली है आज का हर मंज़र है सुनहरा हर इक ज़र्रा रौशन है आज मुक़द्दर की धरती पर चारों तरफ़ हरियाली है जब सब कुछ है पास हमारे फिर ये ख़ला सा कैसा है अब ख़्वाबों के राजमहल का कौन सा कोना ख़ाली है आज सुख़न की रीत नई है , आज अदब आवारा है फ़िक्र तही इब्न-ए-आदम की और लबों पर गाली है इस बस्ती में भूख का डेरा और हुकूमत प्यासी है देश के लीडर कहते हैं , अब चारों तरफ़ ख़ुशहाली है वक़्त गया “ मुमताज़ ” वो जब मुफ़्लिस ने महल के देखे ख़्वाब आज के दौर में पेट भरा हो ये भी पुलाव ख़याली

मदावा-ए-दिल-ओ-जान-ओ-नज़र थी जिसकी हर ख़ूबी

मदावा-ए-दिल-ओ-जान-ओ-नज़र  थी  जिसकी  हर  ख़ूबी तसव्वुर  में  बसा  है  आज  तक  वो  जान -ए -महबूबी चलो  अच्छा  हुआ , इक  आस  की  ज़ंजीर  तो  टूटी शिकस्ता  नाव  तूफाँ से  लड़ी , साहिल  प्  आ  डूबी जो  निस्बत  मौज  से  थी , साहिलों  से  भी  वही  रग़बत न  हम  को  इल्म  था , साहिल  से  मौजों  की  है  मंसूबी फ़क़त  इक  लम्हा  काफ़ी है  मुक़द्दर  के  पलटने  को कभी  भटके  सराबों  में , कभी  मौजों  से  जाँ ऊबी वो  जो  दिल  का  मकीं  था , आजकल  महलों  में  रहता  है न  रास  आया  उसे  खंडर , तिजारत  उस  की  थी  ख़ूबी सफ़र  सहरा  ब  सहरा  था , तो  फिर  आसान  था  यारो समंदर  के  तलातुम  से  जो  खेले , मौज  ले  डूबी करें  अब  तर्क  ए  उल्फ़त , ये  मोहब्बत  निभ  न  पाएगी न  तुम  में  ज़ोर-ए-यज़दानी , न  हम  में  सब्र-ए-अय्यूबी तेरे  इस  इल्तेफ़ात-ए-नारसा तक  कौन  पहुंचेगा न  हम  में  हौसला  इतना , न  तेरा  इश्क़ मरऊबी वो  जल्वा , एक  वो  जल्वा , जो  मस्ताना  बना  डाले निगाह-ए-दीद  का  मोहताज  है  वो  जान-ए-महबूबी वही  "मुमताज़" जिस  ने  तुम 

हर अदा हम तो ब अंदाज़-ए-जुदा रखते हैं

हर अदा हम तो ब अंदाज़-ए-जुदा रखते हैं ऐब ये सब से बड़ा है कि वफ़ा रखते हैं हर नए ज़ख़्म को सर आँखों पे रक्खा है सदा दर्द सीने में तलब से भी सिवा रखते हैं मा ’ रेका माना है दुश्वार , मगर हम भी तो दिल में तूफ़ान , निगाहों में बला रखते हैं कितनी तारीकियाँ सीने में छुपा कर भी हम हर अँधेरे में तबस्सुम की ज़िया रखते हैं हर नफ़स एक अज़ीयत है तो धड़कन है वबाल एक इक साँस में सौ दर्द छुपा रखते हैं क्या कहा ? आपको हम से है अदावत ? साहब जाइए जाइए , हम भी तो ख़ुदा रखते हैं बात की बात में लड़ने पे हुए आमादा तीर हर वक़्त जो चिल्ले पे चढ़ा रखते हैं जाने कब उसकी कोई याद चली आए यहाँ दिल का दरवाज़ा शब-ओ-रोज़ खुला रखते हैं ख़ैरमक़दम न किया हमने उम्मीदों का कभी आरज़ूओं को तो हम दर पे खड़ा रखते हैं हम सा दीवाना भी “ मुमताज़ ” कोई क्या होगा हर तबाही को कलेजे से लगा रखते हैं ब अंदाज़-ए-जुदा – अलग अंदाज़ में , तलब – माँग , मा ’ रेका – जंग , तारीकियाँ – अँधेरा , तबस्सुम – मुस्कराहट , ज़िया – रौशनी , नफ़स – साँस , अज़ीयत – यातना , वबाल – मुसीबत , अदावत

कहाँ तक इन बयाबानों की कोई ख़ाक अब छाने

कहाँ तक इन बयाबानों की कोई ख़ाक अब छाने हमारी ज़िन्दगी में दूर तक बिखरे हैं वीराने न जाने कितने नक़्शे बनते रहते हैं तसव्वर में सुनाती है सियाही रात भर कितने ही अफ़साने यहाँ भी वो ही वहशत , वो ही ज़ुल्मत , वो ही महरूमी हम आए थे यहाँ दो चार पल की राहतें पाने न गर तर्क-ए-मोहब्बत हम करें अब तो करें भी क्या मोहब्बत भी है अब ज़ख़्मी , शिकस्ता हैं वो याराने लिए जाती है जाने किस जगह ये आरज़ू मुझ को हमारी बेबसी का कोई भी अब राज़ क्यूँ जाने सराबों का सफ़र सहरा ब सहरा करते जाते हैं जहाँ हम हैं वहाँ आती नहीं कोई घटा छाने ये किस मंज़िल पे आ पहुँची हमारी आबलापाई तमन्ना लाई है हमको यहाँ बस ठोकरें खाने करें किस से गिला “ मुमताज़ ” हम ख़ुद भी नहीं अपने पराया है तसव्वर भी , हैं सारे ख़्वाब बेगाने तसव्वर – कल्पना , सियाही – अँधेरा , ज़ुल्मत – अँधेरा , तर्क-ए-मोहब्बत – प्यार का त्याग , शिकस्ता – टूटी हुई , सराबों का सफ़र – मरीचिकाओं का सफ़र , सहरा ब सहरा – रेगिस्तान से रेगिस्तान तक , आबलापाई – पाँव में छाले होना , गिला – शिकायत