जो है जज़्बात में मौजों सी तुग़यानी, नहीं जाती
जो है जज़्बात में मौजों सी तुग़यानी , नहीं जाती किसी सूरत हमारी दिल की सुल्तानी नहीं जाती उसे गुज़रे हुए यूँ तो , ज़माना हो चुका है अब मगर वो बेवफ़ा है , बात ये मानी नहीं जाती न जाने कौन सी मंजिल पे आ पहुंचा सफ़र अपना जहाँ ख़ुद अपनी भी आवाज़ पहचानी नहीं जाती तअस्सुब से कोई तामीर मुमकिन ही नहीं साहब मोहब्बत की ये मिट्टी बैर से सानी नहीं जाती बिगड़ कर रह गया दिल मस्लेहत की ऐश-ओ-इशरत में जहान-ए-रंज-ओ-ग़म की ख़ाक अब छानी नहीं जाती चलन तो आम है फ़ितनागरी का इस ज़माने में मगर अब तक हमारे दिल की हैरानी नहीं जाती तिजारत का ज़माना है कि बिक जाता है ईमाँ भी बताओ , किस के घर रिश्वत की बिरयानी नहीं जाती छुपा लो तुम ही ख़ुद को सैकड़ों पर्दों में ख़ातूनो ज़माने की निगाहों से तो उरियानी नहीं जाती गुज़र जाने दें तूफाँ को , ज़रा झुक कर , तो बेहतर है ये जिद बेकार की "मुमताज़" अब ठानी नहीं जाती जज़्बात-भावनाएं , मौजों सी-लहरों सी , तुगियानी-हलचल , तअस्सुब-तरफदारी , अना-अहम् , तिजारत – व्यापार , ख़ातूनो – औरतों , उरियानी – नंगापन