कहाँ तक इन बयाबानों की कोई ख़ाक अब छाने
कहाँ
तक इन बयाबानों की कोई ख़ाक अब छाने
हमारी
ज़िन्दगी में दूर तक बिखरे हैं वीराने
न
जाने कितने नक़्शे बनते रहते हैं तसव्वर में
सुनाती
है सियाही रात भर कितने ही अफ़साने
यहाँ
भी वो ही वहशत, वो ही ज़ुल्मत, वो ही महरूमी
हम
आए थे यहाँ दो चार पल की राहतें पाने
न
गर तर्क-ए-मोहब्बत हम करें अब तो करें भी क्या
मोहब्बत
भी है अब ज़ख़्मी, शिकस्ता हैं वो याराने
लिए
जाती है जाने किस जगह ये आरज़ू मुझ को
हमारी
बेबसी का कोई भी अब राज़ क्यूँ जाने
सराबों
का सफ़र सहरा ब सहरा करते जाते हैं
जहाँ
हम हैं वहाँ आती नहीं कोई घटा छाने
ये
किस मंज़िल पे आ पहुँची हमारी आबलापाई
तमन्ना
लाई है हमको यहाँ बस ठोकरें खाने
करें
किस से गिला “मुमताज़” हम ख़ुद भी नहीं अपने
पराया
है तसव्वर भी, हैं सारे ख़्वाब बेगाने
तसव्वर
–
कल्पना, सियाही – अँधेरा, ज़ुल्मत – अँधेरा, तर्क-ए-मोहब्बत
– प्यार का त्याग, शिकस्ता – टूटी हुई, सराबों का सफ़र –
मरीचिकाओं का सफ़र, सहरा ब सहरा –
रेगिस्तान से रेगिस्तान तक, आबलापाई –
पाँव में छाले होना, गिला – शिकायत
Comments
Post a Comment