रूह है बेहिस, आँखें वीराँ, दिल एहसास से ख़ाली है
रूह
है बेहिस, आँखें वीराँ, दिल एहसास से ख़ाली है
इस
रुत में हर पेड़ बरहना, बिखरी डाली डाली है
नफ़रत, आँसू, मक्र-ओ-छलावे, पी जाते हैं हँसते हुए
जीने
की इस दौर में हमने ये तरकीब निकाली है
ख़ुशियाँ, चाहत, सिद्क़-ओ-मोहब्बत, ज़ब्त की दौलत दिल में थी
इन
जज़्बात की गलियों में दिल अपना आज सवाली है
ये
भी इमारत एक न इक दिन सीना तान खड़ी होगी
जब्र
की इस बस्ती में प्यार की नींव जो हमने डाली है
याद
ने दिल के दरवाज़े पर चुपके से जब दस्तक दी
होंठ
हँसे, आँखें छलकीं, ये सहर भी कितनी काली है
आज
का हर मंज़र है सुनहरा हर इक ज़र्रा रौशन है
आज
मुक़द्दर की धरती पर चारों तरफ़ हरियाली है
जब
सब कुछ है पास हमारे फिर ये ख़ला सा कैसा है
अब
ख़्वाबों के राजमहल का कौन सा कोना ख़ाली है
आज
सुख़न की रीत नई है, आज अदब आवारा है
फ़िक्र
तही इब्न-ए-आदम की और लबों पर गाली है
इस
बस्ती में भूख का डेरा और हुकूमत प्यासी है
देश
के लीडर कहते हैं, अब चारों तरफ़ ख़ुशहाली है
वक़्त
गया “मुमताज़” वो जब मुफ़्लिस ने महल के देखे ख़्वाब
आज
के दौर में पेट भरा हो ये भी पुलाव ख़याली है
बरहना
–
नग्न, सिद्क़ – सच्चाई, सवाली – भिखारी, ख़ला – ख़ालीपन, सुख़न – शायरी, अदब – साहित्य, तही – ख़ाली, इब्न-ए-आदम – इंसान, मुफ़्लिस – ग़रीब
Comments
Post a Comment