बाग़ी क़व्वाल - अज़ीज़ नाज़ाँ (क़िस्त 4)


हर साल अजमेर में हुज़ूर ग़रीब नवाज़ के उर्स के मौक़े पर तमाम क़व्वाल वहाँ हाज़िरी देने जाते हैं । ऐसा माना जाता है के महफ़िले-समाअ में जिस को गाने का मौका मिल गया उस कि क़िस्मत खुल जाती है । नौशाद से अलग होने के बाद अज़ीज़ साहब काफी मायूस थे, और उसी मायूसी के आलम में वो हाज़िरी के लिए अजमेर पहुंचे । दिल में मायूसी भी थी, ग़ुस्सा भी और शिकायतें भी, और जो ग़ज़ल वो वहाँ गाने के लिए ले गए थे, उस के बोल थे,
ख़्वाजा हिन्दल्वली हो निगाह ए करम, मेरा बिगड़ा मुक़द्दर संवर जाएगा 
एक अदना भीकरी जो दहलीज़ पर आ के बैठा है उठ कर किधर जाएगा 
महफ़िले-समाअ में उन्हों ने अपना नाम दर्ज करा दिया था, लेकिन गाने वालों की फ़ेहरिस्त काफी लंबी थी । सुबह के 4 बज चुके थे, और ऐसा लग रहा था के आज उन का नंबर नहीं आएगा । एक एक पल भारी था, लेकिन इंतज़ार के अलावा और कोई चारा भी नहीं था । तो इंतज़ार करते रहे, और दिल ही दिल में हुज़ूर के दरबार में फरियाद भी करते रहे कि क्या मेरा नंबर नहीं आएगा । अब ये कोई मौजिज़ा था, या करामत, या फिर उन कि क़िस्मत, उस दिन 4-5 बड़े बड़े क़व्वाल जिन का नाम उन के नाम के पहले दर्ज था, महफिल से ग़ैर हाज़िर थे । इस तरह उन का नंबर आ गया । सुबह कि अज़ान के ऐन पहले का वक़्त था । इसी वक़्त सज्जादा नशीन मज़ार पर दिया जलाते हैं । उन्हों ने मिसरा शुरू किया,
ख़्वाजा हिन्दल्वली हो निगाहे करम 
और जो आवाज़ लगाई..."या ग़रीब नवाज़" तो सारा अजमेर गूंज उठा । तक़रार शुरू हुई, 
हो निगाह-ए-करम 
करम निगाह-ए-करम 
और ये तक़रार एक घंटा चली । अजीब आलम था । अज़ीज़ साहब बेख़ुदी के आलम में गा रहे थे । उन पर रिक़्क़त तारी थी । फ़क़ीरों को वज्द आया जा रहा था । कितने ही फ़क़ीरों को महफिल से निकाल दिया गया, क्यूँ कि महफ़िल-ए-समाअ में वज्द में आने कि इजाज़त नहीं है । जिस फ़क़ीर को महफ़िल से निकाला जाता, वो जाते जाते अज़ीज़ साहब को तमांचों से नवाज़ता, कि ये उन के गाने का ही असर था जिस ने उन्हें महफ़िल से निकलवाया, लेकिन उन के लिए गिया ये तमांचे भी दुआएं बन गए थे । उन्हें होश ही न था कि क्या हुआ और क्या नहीं । इसी आलम में एक घंटा गुज़र गया, और वो मिसरे का दूसरा हिस्सा गा ही न सके । लेकिन जिस करम के वो ख़्वाहाँ थे, वो आधे मिसरे में ही हो चुका था । इसी के फ़ौरन बाद उन कि क़व्वाली "झूम बराबर झूम शराबी" मंज़र ए आम पर आई, और इस के बाद जो कुछ हुआ, वो एक इतिहास है । 
"झूम बराबर झूम" 1970 में आया था, और आते ही सुपर हिट साबित हुआ था । हर किसी की ज़ुबान पर अज़ीज़ नाज़ाँ का नाम था । अब तक उन के काफी लोगों से तअल्लुक़ात बन गए थे । जिन में हाजी मस्तान भी शामिल थे । ये 1972 की बात है, हाजी मस्तान "मेरे ग़रीब नवाज़" बना रहे थे । फ़िल्म बन चुकी थी, और उस में गुंजाइश नहीं थी, लेकिन वो अज़ीज़ साहब को इस फ़िल्म में किसी न किसी तरह शामिल करना चाहते थे । इस का हल ऊन्हों ने इस तरह निकाला कि उन्हों ने अज़ीज़ साहब कि 20 मिनट कि शो रील बनाई, जिस में झूम बराबर के अलावा उन के दूसरे हिट्स,"निगाह ए करम" और "तेरी बातें ही सुनाने आए" भी थे । जब "मेरे ग़रीब नवाज़" रिलीज़ हुई तब ये रील उस फ़िल्म के बीच में इंटरवल के बाद दिखाई जाने लगी । ये झूम बराबर का ही असर था कि ये फ़िल्म सुपर डुपर हिट साबित हुई । इस के अगले साल आई॰ एस॰ जौहर ने इस क़व्वाली को अपनी फ़िल्म "5 राइफ़ल्स" के लिए खरीद लिया । ये फ़िल्म भी इस क़व्वाली कि वजह से सुपर हिट रही । "झूम बराबर" कि कामयाबी का ये आलम था कि 1974 में बिनाका गीत माला के काउंट डाउन में ये 20 हफ्तों तक नंबर 1 पर रही । यही नहीं एयर इंडिया के म्यूज़िकल मैन्यू में इंडियन म्यूजिक सेक्शन में ये क़व्वाली भी शामिल थी । इस क़व्वाली ने उन्हें बाग़ी क़व्वाल का खिताब दिलाया था । ये उन की ज़िन्दगी का टर्निंग पॉइंट साबित हुई । वो रातों रात स्टार बन गए थे । 
पाकिस्तानी ग़ज़ल गायक ग़ुलाम अली के वो दीवानगी कि हद तक फ़ैन थे । वो उन के दोस्त भी थे और उन को इंडिया में प्रमोट करने में अज़ीज़ साहब का बहुत बड़ा हाथ रहा । फिल्मी दुनिया में कुछ लोगों से उन कि दोस्ती काफी गहरी रही । कल्याण जी भी उन में से एक थे । न सिर्फ उन्हों ने "झूम बराबर झूम" के संगीतकार के तौर पर उन का नाम दिया था, बल्कि उन के लिए उन्हों ने कई गीत भी गाए थे और साथ में देश विदेश में कई प्रोग्राम्स भी किए थे । उन के यहाँ उन का काफी आना जाना था । एक दिन कल्याण जी के घर पर उन के अलावा लता मंगेशकर और अमिताभ बच्चन भी मौजूद थे । बातों बातों में बात मेहदी हसन और ग़ुलाम अली कि चल निकली । लता जी मेहदी हसन कि पैरो थीं, जब कि अज़ीज़ साहब ग़ुलाम अली के फ़ेवर में डटे थे । गर्मागर्म बहस चल रही थी । उन का लता जी से इस तरह बहस करना शायद अमिताभ जी को पसंद नहीं आया । उन्हों ने बीच में दखल दे कर कहा, "लता जी कह रही हैं तो सही ही कह रही हैं, आप क्यूँ उन से बहस कर रहे हैं ।" अज़ीज़ साहब भला इतना सुनने के आदि कहाँ थे । उन्हों ने फ़ौरन जवाब दिया, "अमिताभ जी, ये मेरे अँगने में तुम्हारा क्या काम है गाने कि बात नहीं हो रही । ये गाने बजाने कि बात है । इस में आप खामोश रहें तो बेहतर होगा ।" अमिताभ जी चुप हो गए, और लता जी इस बहस से इतनी प्रभावित हुईं कि उन्हों ने अपने घर पर उन का प्रोग्राम रखा । 
वो भेंड़ी बाज़ार इलाक़े कि एक चाल में रहते थे । उन का ससुराल सांताक्रूज में था । उन की बीवी ने सांताक्रूज में एक फ्लैट खरीद लिया और वहीं शिफ्ट हो गई । ये बात उन्हें पसंद नहीं आई । वो कभी भी वहाँ रहने नहीं गए । शायद यही वजह रही हो नाइत्तेफ़ाक़ी की लेकिन उन की जिंदगी में एक और लड़की आई, जिस का नाम शमीरा था । कुछ दिनों बाद उनहों ने उस से शादी कर ली । इस पर उन के घर में बड़ा वबाल हुआ, लड़ाई झगड़े हुए, लेकिन उनहों ने शमीरा को तलाक देने से साफ इंकार कर दिया । इस बात से नाराज़ हो कर उन की बीवी ने नींद की बहुत सी गोलियाँ खा लीं । उसे आनन फानन में हस्पताल ले जाया गया, और इलाज शुरू हुआ, लेकिन वो ठीक होने की बजाए कोमा में चली गई । 10 दिन कोमा में रहने के बाद उस का इंतकाल हो गया ।

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