महरूमी की धूप ढली, सर पर दौलत के साए हैं

महरूमी की धूप ढली, सर पर दौलत के साए हैं
राहत का वो दौर गया बेचैनी के दिन आए हैं

कितनी मुद्दत बाद मिली फ़ुरसत दो पल आराम को तो
गिनते रहे कैसे कैसे मौक़े बस मुफ़्त गँवाए हैं

वक़्त ने करवट क्या बदली चेहरे ही सारे बदल गए
कल तक जो अपने से लगते हैं वो आज पराए हैं

जिनको चलना हम ने सिखाया आगे कब के निकल गए
थक कर राह में हम बैठे हैं, रात के गहरे साए हैं

आज हिसाब-ए-रोज़-ओ-शब करने बैठे तो राज़ खुला
सारी उम्र लुटाई है तो कुछ लम्हे हाथ आए हैं

ज़िन्दगी हाथ से छूट के खोई, वक़्त फिसलता जाता है
इस मंज़िल पर साथ में अपने सिर्फ़ क़ज़ा ही लाए हैं

कोई तमन्ना, कोई जज़्बा, कोई ग़म मुमताज़ नहीं
एक दिल-ए-बेहिस है, और हम और अजल के साए हैं


रोज़-ओ-शब रात और दिन, लम्हे पल, क़ज़ा मौत, अजल मौत 

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