मदावा-ए-दिल-ओ-जान-ओ-नज़र थी जिसकी हर ख़ूबी
मदावा-ए-दिल-ओ-जान-ओ-नज़र
थी जिसकी हर
ख़ूबी
तसव्वुर में बसा
है आज तक
वो जान -ए -महबूबी
चलो अच्छा हुआ, इक
आस की ज़ंजीर
तो टूटी
शिकस्ता नाव तूफाँ से
लड़ी, साहिल प्
आ डूबी
जो निस्बत मौज
से थी, साहिलों से
भी वही रग़बत
न हम को
इल्म था, साहिल से
मौजों की है
मंसूबी
फ़क़त इक लम्हा
काफ़ी है मुक़द्दर के
पलटने को
कभी भटके सराबों
में, कभी मौजों
से जाँ ऊबी
वो जो दिल
का मकीं था, आजकल
महलों में रहता
है
न रास आया
उसे खंडर, तिजारत उस
की थी ख़ूबी
सफ़र सहरा ब
सहरा था, तो फिर
आसान था यारो
समंदर के तलातुम
से जो खेले, मौज
ले डूबी
करें अब तर्क
ए उल्फ़त, ये मोहब्बत
निभ न पाएगी
न तुम में
ज़ोर-ए-यज़दानी, न हम में
सब्र-ए-अय्यूबी
तेरे इस इल्तेफ़ात-ए-नारसा तक कौन
पहुंचेगा
न हम में
हौसला इतना, न तेरा
इश्क़ मरऊबी
वो जल्वा, एक वो
जल्वा, जो मस्ताना
बना डाले
निगाह-ए-दीद
का मोहताज है
वो जान-ए-महबूबी
वही
"मुमताज़" जिस ने तुम
को चाहा था
दिल-ओ-जाँ से
मोहब्बत ने बना
डाला उसे भी
देख मज्ज़ूबी
मदावा-इलाज, तसव्वुर-कल्पना, महबूबी-प्यारा, शिकस्ता नाव-
टूटी हुई नाव, साहिल-
किनारा, निस्बत-
संबंध, मौज-
लहर, रग्बत-
प्यार, मंसूबी-सांठ
गाँठ, फ़क़त-सिर्फ़, लम्हा- पल, सराब-मृगतृष्णा, मकीं- रहने
वाला,तिजारत-व्यापार, तर्क ए उल्फ़त, प्यार का त्याग, ज़ोर ए यजदानी-
अल्लाह की ताक़त,
सब्र ए अय्यूबी- अय्यूब के जैसा सब्र (हज़रत अय्यूब एक
पैग़म्बर थे, जिन की
अल्लाह ने बहुत परीक्षा ली, और वो हर परीक्षा में खरे उतरे), इल्तेफात ए
नारसा- न हासिल हो सकने वाली मेहरबानी, मरऊबी- हावी रहने वाला, निगाह ए दीद-
देखने वाली निगाह,
सहरा ब सहरा- रेगिस्तान ही रेगिस्तान में, तलातुम-तूफानी
लहरें
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