हर घड़ी पलकों में है बेख़्वाबियों का सिलसिला
हर
घड़ी पलकों में है बेख़्वाबियों का सिलसिला
सारा
आलम सो रहा है, जागता है रास्ता
एक
वो छोटी सी लग़्ज़िश, ज़िन्दगी भर की सज़ा
बन
गई जाँ की मुसीबत एक छोटी सी ख़ता
वापसी
की राह कोई अब नज़र आती नहीं
आँधियों
ने तो मिटा डाले हैं सारे नक़्श-ए-पा
रास
क्या आएगा साक़ी मुझ को ये तेरा करम
तश्नगी
मेरी कहाँ, ये तेरा मैख़ाना कुजा
रात
की वीरान राहों में ये कैसा शोर है
मुझ
को पागल कर न दे दिल के धड़कने की सदा
अजनबी
एहसास ये कैसा है दिल के चार सू
दर
पे दस्तक दे रही है सरफिरी पागल हवा
फिर
वही बेहिस सी रातें, फिर वही वीरान दिन
जाँ
की गाहक बन गई है वहशतों की इंतेहा
दे
के हम को चंद साँसें सारी ख़ुशियाँ लूट लीं
हम
को अपनी ज़िन्दगी से है फ़क़त इतना गिला
अब
न कोई ग़म, न हसरत है, न कोई दर्द है
रह
गया “मुमताज़” पैहम रतजगों का सिलसिला
बेख़्वाबी
–
नींद न आना, लग़्ज़िश – लड़खड़ाना, नक़्श-ए-पा – पाँव के निशान, कुजा
– कहाँ, चार सू –
चारों तरफ, बेहिस – भावनाशून्य, वहशत – घबराहट, फ़क़त – सिर्फ़, गिला – शिकायत, पैहम – लगातार
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