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रात हो तो दिल से लावा सा उबल जाता है क्यूँ

रात हो तो दिल से लावा सा उबल जाता है क्यूँ मेहर रुख़्सत हो तो फिर मेहताब जल जाता है क्यूँ رات ہو تو دل سے لاوا سا ابل جاتا ہے کیوں مہر رخصت ہو تو پھر مہتاب جل جاتا ہے کیوں वो तो देता ही रहा है दिल को वादों का फ़रेब उस के वादों से मगर ये दिल बहल जाता है क्यूँ وہ تو دیتا ہی رہا ہے دل کو وعدوں کا فریب اس کے وعدوں سے مگر یہ دل بہل جاتا ہے کیوں तीरगी तो रात की क़िस्मत में लिक्खी है , मगर मेहर ये हर रोज़ नादिम हो के ढल जाता है क्यूँ تیرگی تو رات کی قسمت میں لکھی ہے مگر مہر یہ ہر روز نادم ہو کے ڈھل جاتا ہے کیوں तुम न अपना दिल संभालो , हम कि परदे में रहें कैसा दिल है , इक झलक से ही मचल जाता है क्यूँ تم نہ اپنا دل سنبھالو، ہم کہ پردے میں رہیں کیسا دل ہے، اک جھلک سے ہی مچل جاتا ہے کیوں औरतें तो ख़ैर बेपर्दा हैं , उन का है गुनाह बच्चियों पर भी ज़िना का तीर चल जाता है क्यूँ عورتیں تو خیر بےپردہ ہیں، ان کا ہے گناہ بچیوں پر بھی زنا کا تیر چل جاتا ہے کیوں बारहा सूरज की किरनों ने किया है ये सवाल आसमाँ के रुख़ प् कालक वक़्त मल जाता है क्यूँ بارہا سورج کی

धड़कनें चुभने लगी हैं, दिल में कितना दर्द है

धड़कनें चुभने लगी हैं , दिल में कितना दर्द है टूटते दिल की सदा भी आज कितनी सर्द है बेबसी के ख़ून से धोना पड़ेगा अब इसे वक़्त के रुख़ पर जमी जो बेहिसी की गर्द है बोझ फ़ितनासाज़ियों का ढो रहे हैं कब से हम जिस की पाई है सज़ा हम ने , गुनह नाकर्द है ज़ब्त की लू से ज़मीं की हसरतें कुम्हला गईं धूप की शिद्दत से चेहरा हर शजर का ज़र्द है छीन ले फ़ितनागरों के हाथ से सब मशअलें इन दहकती बस्तियों में क्या कोई भी मर्द है ? दिल में रौशन शोला - ए - एहसास कब का बुझ गया हसरतें ख़ामोश हैं , अब तो लहू भी सर्द है अब कहाँ जाएँ तमन्नाओं की गठरी ले के हम हर कोई दुश्मन हुआ है , मुनहरिफ़ हर फ़र्द है जुस्तजू कैसी है , किस शय की है मुझ को आरज़ू मुस्तक़िल बेचैन रखता है , जुनूँ बेदर्द है   तुम तअस्सुब का ज़रा पर्दा हटा कर देख लो अब तुम्हें हम क्या बताएँ कौन दहशत गर्द है ऐसा लगता है कि सदियों से ये दिल वीरान है आरज़ूओं पर जमी " मुमताज़ " कैसी गर्द है     

खुली नसीब की बाहें मरोड़ देंगे हम

खुली नसीब की बाहें मरोड़ देंगे हम कि अब के अर्श का पाया झिंझोड़ देंगे हम کھلی نصیب کی باہیں مروڑ دینگے ہم کہ اب کے عرش کا پایا جھنجوڑ دینگے ہم जुनूँ बनाएगा बढ़ बढ़ के आसमान में दर ग़ुरूर अब के मुक़द्दर का तोड़ देंगे हम جنوں بنائیگا بڑھ بڑھ کے آسمان میں در غرور اب کے مقدر کا توڑ دینگے ہم अभी उड़ान की हद भी तो आज़मानी है फ़लक को आज बलंदी में होड़ देंगे हम ابھی اُڑان کی حد بھی تو آزمانی ہے فلک کو آج بلندی میں ہوڑ دینگے ہم है मसलेहत का तक़ाज़ा तो आओ ये भी सही हिसार-ए -आरज़ू थोडा सिकोड़ देंगे हम ہے مصلحت کا تقاضا تو آؤ یہ بھی سہی حصارِ آرزو تھوڑا سکوڑ لینگے ہم जो ज़िद पे आए तो इक इन्क़ेलाब लाएँगे जेहाद-ए -वक़्त को लाखों करोड़ देंगे हम جو ضد پہ آئے تو اک انقلاب لائینگے جہادِ وقت کو لاکھوں کروڑ دینگے ہم इरादा कर ही लिया है तो जान भी देंगे इस इम्तेहाँ में लहू तक निचोड़ देंगे हम ارادہ کر ہی لیا ہے تو جان بھی دینگے اس امتحاں میں لہو تک نچوڑ دینگے ہم उठेगा दर्द फिर इंसानियत के सीने में हर एक दिल का फफोला जो फोड़ देंगे हम اٹھیگا درد پھر انسانیت کے سینے

मरासिम कोई जो बाहम न होंगे

मरासिम कोई जो बाहम न होंगे कोई खद्शात , कोई ग़म न होंगे गुमाँ की बस्तियाँ मिस्मार कर दो यकीं के सिलसिले मुबहम न होंगे ख़ुदा के सामने हैं सर-ब -सजदा हमारे सर कहीं भी ख़म न होंगे निकल आए हैं हम हर कशमकश से ये सदमे अब हमें जानम न होंगे हमारी क़द्र भी समझेगी दुनिया मगर तब , जब जहाँ में हम न होंगे मुक़द्दर हम ने ख़ुद अपना लिखा है सितारे हम से क्यूँ बरहम न होंगे मुझे तू जैसे चाहे आज़मा ले " मेरे जज़्बात-ए-उल्फ़त कम न होंगे" यहाँ "मुमताज़" ठहरी हैं खिज़ाएँ यहाँ अब ख़्वाब के मौसम न होंगे marasim koi jo baaham na honge koi khadshaat, koi gham na honge gumaaN ki bastiyaaN mismaar kar do yaqeeN ke silsile mubham na honge khuda ke saamne haiN sar-ba-sajdaa hamaare sar kahiN bhi kham na honge nikal aae haiN ham har kashmkash se ye sadme ab hameN jaanam na honge hamaari qadr bhi samjhegi duniya magar tab, jab jahaN meN ham na honge muqaddar ham ne khud apna likha hai sitaare ham se kyuN barham na honge muj

तश्नगी निगाहों की लम्हा भर को मिट जाए

तश्नगी निगाहों की लम्हा भर को मिट जाए सामने कभी तो वो नूर बे नक़ाब आए تشنگی نگاہوں کی لمحہ بھر کو مٹ جائے سامنے کبھی تو وہ نور بےنقاب آئے छीन लें सभी मंज़र आँख से तो मुमकिन है क़ैद से निगाहों की दिल निजात भी पाए چھین لیں سبھی منظر آنکھ سے تو ممکن ہے قید سے نگاہوں کی دل نجات بھی پائے जल के ख़ाक हो जाए रूह-ओ-क़ल्ब की दुनिया आरज़ू के सहरा में कौन आग दहकाए جل کے خاک ہو جائے روح و قلب کی دنیا آرزو کے سحرا میں کون آگ دہکائے आज तक बग़ावत पर दिल रहा है आमादा मस्लेहत मेरे दिल को जाने कब से समझाए آج تک بغاوت پر دل رہا ہے آمادہ مصلحت مرے دل کو جانے کب سے سمجھائے वादी-ए-अना का हर ज़ाविया मोअत्तर है दिल के इस घरौंदे को किस की याद महकाए وادیء انا کا ہر زاویہ معطر ہے دل کے اس گھروندے کو کس کی یاد مہکائے याद के दरीचों से बच के हम चले लेकिन दिल पे अब भी पड़ते हैं गुज़रे वक़्त के साए یاد کے دریچوں سے بچ کے ہم چلے لیکن دل پہ اب بھی پڑتے ہیں گذرے وقت کے سائے सींचते हैं अश्कों से यूँ भी दिल को हम अक्सर शायद इस बयाबाँ में फिर बहार लौट आए سینچتے ہیں اشکو

ज़हन ओ दिल इरफ़ान से सरशार होना चाहिए

ज़हन ओ दिल इरफ़ान से सरशार होना चाहिए   अब इबादत का जुदा मेयार होना चाहिए   नाम है मुस्लिम , मगर इस्लाम का ऐ दोस्तो   अब ज़ुबान-ए-दिल से भी इक़रार होना चाहिए   देख डाला है नज़र ने हर नज़ारा , अब मगर गुंबद - ए-ख़ज़रा का बस दीदार होना चाहिए   अहमद-ए-मुरसल की ज़ात-ए-पाक का जब ज़िक्र हो   रूह आसिम , बावज़ू किरदार होना चाहिए   होगा फिर "मुमताज़" दिल पर इंकेशाफ़-ए-राज़-ए-हक़ ज़हन-ओ-दिल में वो हेरा का गार होना चाहिए  

अस्बियत का ग़ुबार छट जाए

अस्बियत का ग़ुबार छट जाए तीरगी खुद में ही सिमट जाए عصبیت کا غبار   چھٹ جائے تیرگی خود میں ہی سمٹ جائے वो शजर दिल का फिर फले कैसे अपनी ही ज़ात से जो कट जाए وہ شجر دل کا پھر پھلے کیسے اپنی ہی ذات سے جو کٹ جائے जब ज़ुबां अर्ज़ ए हाल की सोचे दिल ग़ुबार ए अना से अट जाए جب زباں عرضِ حال کی سوچے دل غبارِ انا سے اٹ جائے कह दो कोई ये दश्त ए वहशत से अब मेरे रास्ते से हट जाए کہہ دو کوئی یہ دشتِ وحشت سے اب مرے راستے سے ہٹ جائے हौसला ज़र्ब दे जो लहरा कर पत्थरों का जिगर भी फट जाए حوصلہ ضرب دے جو لہرا کر پتھروں کا جگر بھی پھٹ جائے रात की ज़ुल्फ़ जब परेशाँ हो मुझ से हर तीरगी लिपट जाए رات کی زلف جب پریشاں ہو مجھ سے ہر تیرگی لپٹ جائے शब् की ख़िलवत में शोर है कैसा नींद क्यूँ बारहा उचट जाए شب کی خلوت میں شور ہے کیسا نیند کیوں بارہا اُچٹ جائے यादें "मुमताज़" जब बरस जाएं ज़हन का हर ग़ुबार छट जाए یادیں ممتازؔ جب برس جائیں ذہن کا ہر غبار چھٹ جائے