अस्बियत का ग़ुबार छट जाए


अस्बियत का ग़ुबार छट जाए
तीरगी खुद में ही सिमट जाए
عصبیت کا غبار  چھٹ جائے
تیرگی خود میں ہی سمٹ جائے

वो शजर दिल का फिर फले कैसे
अपनी ही ज़ात से जो कट जाए
وہ شجر دل کا پھر پھلے کیسے
اپنی ہی ذات سے جو کٹ جائے

जब ज़ुबां अर्ज़ ए हाल की सोचे
दिल ग़ुबार ए अना से अट जाए
جب زباں عرضِ حال کی سوچے
دل غبارِ انا سے اٹ جائے

कह दो कोई ये दश्त ए वहशत से
अब मेरे रास्ते से हट जाए
کہہ دو کوئی یہ دشتِ وحشت سے
اب مرے راستے سے ہٹ جائے

हौसला ज़र्ब दे जो लहरा कर
पत्थरों का जिगर भी फट जाए
حوصلہ ضرب دے جو لہرا کر
پتھروں کا جگر بھی پھٹ جائے

रात की ज़ुल्फ़ जब परेशाँ हो
मुझ से हर तीरगी लिपट जाए
رات کی زلف جب پریشاں ہو
مجھ سے ہر تیرگی لپٹ جائے

शब् की ख़िलवत में शोर है कैसा
नींद क्यूँ बारहा उचट जाए
شب کی خلوت میں شور ہے کیسا
نیند کیوں بارہا اُچٹ جائے

यादें "मुमताज़" जब बरस जाएं
ज़हन का हर ग़ुबार छट जाए
یادیں ممتازؔ جب برس جائیں
ذہن کا ہر غبار چھٹ جائے

Comments

Popular posts from this blog

ज़ालिम के दिल को भी शाद नहीं करते