रात हो तो दिल से लावा सा उबल जाता है क्यूँ


रात हो तो दिल से लावा सा उबल जाता है क्यूँ
मेहर रुख़्सत हो तो फिर मेहताब जल जाता है क्यूँ
رات ہو تو دل سے لاوا سا ابل جاتا ہے کیوں
مہر رخصت ہو تو پھر مہتاب جل جاتا ہے کیوں

वो तो देता ही रहा है दिल को वादों का फ़रेब
उस के वादों से मगर ये दिल बहल जाता है क्यूँ
وہ تو دیتا ہی رہا ہے دل کو وعدوں کا فریب
اس کے وعدوں سے مگر یہ دل بہل جاتا ہے کیوں

तीरगी तो रात की क़िस्मत में लिक्खी है, मगर
मेहर ये हर रोज़ नादिम हो के ढल जाता है क्यूँ
تیرگی تو رات کی قسمت میں لکھی ہے مگر
مہر یہ ہر روز نادم ہو کے ڈھل جاتا ہے کیوں

तुम न अपना दिल संभालो, हम कि परदे में रहें
कैसा दिल है, इक झलक से ही मचल जाता है क्यूँ
تم نہ اپنا دل سنبھالو، ہم کہ پردے میں رہیں
کیسا دل ہے، اک جھلک سے ہی مچل جاتا ہے کیوں

औरतें तो ख़ैर बेपर्दा हैं, उन का है गुनाह
बच्चियों पर भी ज़िना का तीर चल जाता है क्यूँ
عورتیں تو خیر بےپردہ ہیں، ان کا ہے گناہ
بچیوں پر بھی زنا کا تیر چل جاتا ہے کیوں

बारहा सूरज की किरनों ने किया है ये सवाल
आसमाँ के रुख़ प् कालक वक़्त मल जाता है क्यूँ
بارہا سورج کی کرنوں نے کیا ہے یہ سوال
آسماں کے رخ پہ کالک وقت مل جاتا ہے کیوں

क़तरा क़तरा हो के जम जाए ख़स ओ ख़ाशाक पर
ये अँधेरा सुब्ह होते ही पिघल जाता है क्यूँ
قطرہ قطرہ ہو کے جم جائے خس و خاشاک پر
یہ اندھیرا صبح ہوتے ہی پگھل جاتا ہے کیوں

रास आती ही नहीं बीनाई को अब रौशनी
नूर आँखों को मेरी "मुमताज़" छल जाता है क्यूँ 
راس آتی ہی نہیں بینائی کو اب روشنی
نور آنکھوں کو مری ممتازؔ چھل جاتا ہے کیوں


मेहर-सूरज, रुख़्सत-विदा, मेहताब-चाँद, तीरगी-अँधेरा, नादिम-शर्मिंदा, ज़िना-बलात्कार, क़तरा क़तरा-बूँद बूँद, ख़स ओ ख़ाशाक-खर पतवार, बीनाई-दृष्टि, नूर-उजाला

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