कभी रुके तो कभी उठ के बेक़रार चले



कभी रुके तो कभी उठ के बेक़रार चले
जो ले के हाथ में हसरत का तार तार चले
کبھی رکے تو کبھی اٹھ کے بیقرار چلے
جو لے کے ہاتھ میں حسرت کا تار تار چلے

निसार हों मह-ओ-ख़ुर्शीद उसकी हस्ती पर
नज़र से उसकी थमे और कभी बहार चले
نثار ہو مہ و خورشید اس کی ہستی پر
مظر سے اس کی تھمے اور کبھی بہار چلے

उठाए फिरते थे सीने पे एक मुद्दत से
हयात आज तेरा क़र्ज़ हम उतार चले
اٹھائے پھرتے تھے سینے پہ ایک مدت سے
حیات آج ترا قرض ہم اتار چلے

सबा ने चूम लिए बढ़ के नक़्श-ए-पा अपने
उसी दयार की जानिब जो बेक़रार चले
سبا نے چوم لئے بڑھ کے نقشِ پا اپنے
اسی دیار کی جانب جو بیقرار چلے

गराँ गुज़रती है मुमताज़ दिल पे जो अक्सर
वो बात महफ़िल-ए-याराँ में बार बार चले
گراں گذرتی ہے ممتازؔ دل پہ جو اکثر
وہ بات محفلِ یاراں میں بار بار چلے

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