रिश्तों का ये राज़ भी कितना गहरा लगता है



रिश्तों का ये राज़ भी कितना गहरा लगता है
दर्द-ओ-अलम का हर अफ़साना अपना लगता है
رشتوں کا یہ راز بھی کتنا گہرا لگتا ہے
درد و الم کا ہر افسانہ اپنا لگتا ہے

चोट कोई खाई है उसने ऐसा लगता है
आज तो बदला बदला उसका लहजा लगता है
چوٹ کوئی کھائی ہے اس نے ائیسا لگتا ہے
آج تو بدلا بدلا اس کا لہجہ لگتا ہے

खेल रहा है जो ग़ुरबत की गोद में हसरत से
ये तो किसी के दिल का कोई टुकड़ा लगता है
کھیل رہا ہے جو غربت کی گود میں حسرت سے
یہ تو کسی کے دل کا کوئی ٹکڑا لگتا ہے

ये वहशत, ये बेचैनी, ये दर्द तो मेरा है
रंग तुम्हारे चेहरे का क्यूँ फीका लगता है
یہ وحشت، یہ بیچینی، یہ درد تو میرا ہے
رنگ تمہارے چہرے کا کیوں پھیکا لگتا ہے

शब की सियाही ने क्या इसको भी रंग डाला है?
आज सहर का रंग भी कितना काला लगता है
شب کی سیاہی نے کیا اس کو بھی رنگ ڈالا ہے
آج سحر کا رنگ بھی کتنا کالا لگتا ہے

हर लब पर फिर हैरत के ताले पड़ जाते हैं
नहले पर मुमताज़ कभी जब दहला लगता है
ہر لب پر پھر نفرت کے تالے پڑ جاتے ہیں
نہلے پر ممتازؔ کبھی جب دہلا لگتا ہے

Comments

Popular posts from this blog

ज़ालिम के दिल को भी शाद नहीं करते