तेज़तर होती है अब ख़्वाबों की किरचों की चुभन
तेज़तर होती है अब ख़्वाबों की किरचों की चुभन
बढती जाती है मेरी जागती आँखों की जलन
जीने मरने की अदा है न मोहब्बत का चलन
मिट चली आज ज़माने से वही रस्म ए कोहन
ख़त्म होता ही नहीं अब के जुदाई का सफ़र
सो गई ओढ़ के हर आरज़ू यादों का कफ़न
दिल है मसहूर, तसव्वुर पे भी काबू न रहा
कितना दिलकश है ये जज़्बात का बेसाख़्तापन
कोई इफ़्कार का पैकर है, तसव्वुर है न ख़्वाब
लग गया है मेरी तख़ईल को ये कैसा गहन
सामने मंजिल ए मक़सूद है, क्या कीजे मगर
रास्ता रोक रही है मेरे पाओं की थकन
बेहिसी ऐसी, कि तारी है ख़यालों पे जमूद
रूह में उतरी है ये सर्द हवाओं की गलन
यूँ तो सब मिलता है, इंसान नहीं मिलता फ़क़त
मर गई रस्म ए वफ़ा, सूख गईं गंग ओ जमन
गिर पड़े अपने ही साए पे तड़प कर हम भी
चुभ गई तलवों में "मुमताज़" जो राहों की तपन
तेज़ तर-ज़्यादा तेज़, रस्म ए कोहन-पुरानी रस्म, मसहूर-अभिमंत्रित, तसव्वुर-कल्पना, इफ़्कार-फिक्रें, पैकर-आकार, तख़ईल को-ख़यालों
को, मंजिल ए
मक़सूद-लक्ष्य, बेहिसी-भावना
शून्यता, तारी है-छाया
है, जमूद-जम
जाना, रूह-आत्मा, फ़क़त-सिर्फ़, गंग ओ जमन-गंगा
और जमुना (गंगा-जमुनी सभ्यता)
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