नहीं सौदा हमें मंज़ूर, दौलत का ज़मीरों से
न ऐसे छेड़ कर बाद ए सबा तू हम हक़ीरों से
क़फ़स से सर को टकराते हुए वहशी असीरों से
नहीं सौदा हमें मंज़ूर, दौलत का ज़मीरों से
कोई ये जा के कह दे इस ज़माने के अमीरों से
लहू दिल का पसीना बन के बह जाना भी लाज़िम है
मुक़द्दर यूँ नहीं खुलता हथेली की लकीरों से
अज़ल से है मोहब्बत दहर वालों के निशाने पर
मगर डरता कहाँ है इश्क़ तलवारों से, तीरों
से
घिरी है ज़िन्दगी बहर ए अलम में, ठीक है लेकिन
बिखर जाती हैं मौजें सर को टकरा कर जज़ीरों से
सितम परवर, ख़ामोशी को मेरी मत जान मजबूरी
चटानें भी कभी कट जाती हैं पानी के तीरों से
तजुर्बों ने हमें तोड़ा है, फिर अक्सर बनाया
है
अयाँ है राज़ ये "मुमताज़" चेहरे की लकीरों से
बाद ए सबा-सुबह की हवा, हक़ीरों से-छोटे
लोगों से, क़फ़स-पिंजरा, वहशी-पागल, असीरों से-बंदियों
से, लाज़िम-ज़रूरी, अज़ल से-सृष्टि
की शुरुआत से, दहर वालों
के-दुनिया वालों के,
बहर ए अलम-दर्द का सागर, मौजें-लहरें, जज़ीरों से-द्वीपों
से, सितम परवर-यातनाओं
को पालने वाले, अयाँ है-ज़ाहिर
है
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