चलन ज़माने के ऐ यार इख़्तियार न कर
चलन
ज़माने के ऐ यार इख़्तियार न कर
ख़ुशी
के साथ मेरी वहशतें शुमार न कर
तेरी
हयात का गुज़रा वो एक लम्हा है
वो
अब न आएगा, अब उसका इंतज़ार न कर
तिजारतों
में दिलों की सुना नहीं करते
दिलों
की बात पे इतना भी ऐतबार न कर
हुआ
तमाम वो क़िस्सा, कि बात ख़त्म हुई
ज़रा
सी बात पे आँखों को अश्कबार न कर
मिलेगी
कोई न क़ीमत मचलते जज़्बों की
तू
अपनी रूह के ज़ख़्मों का कारोबार न कर
निदामतों
के सिवा क्या तुझे मिलेगा यहाँ
सवाल
कर के तअल्लुक़ को शर्मसार न कर
है
इब्तेदा ही अभी मुश्किलों की, हार न मान
अभी
ग़मों को तबीयत पे आशकार न कर
हिसार-ए-ज़ात
को महदूद कर न इतना भी
ये
भूल जान के “मुमताज़” बार बार न कर
शुमार
–
गिनती, हयात – ज़िन्दगी, तिजारतों में – व्यापार में, अश्कबार
– आंसुओं से भरी हुई, निदामत – शर्मिंदगी, आशकार – ज़ाहिर, हिसार-ए-ज़ात – व्यक्तित्व का घेरा, महदूद – सीमित
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