हो गया ख़ाक तमन्ना का समरदार शजर
कब जला, कैसे जला, बिखरा कहाँ किसको ख़बर
हो गया ख़ाक तमन्ना का समरदार शजर
ज़िन्दगी लाई मुझे आज ये किस मंज़िल पर
आए जाते हैं मेरे ज़ेर ए क़दम शम्स ओ गोहर
दहक उट्ठा था बदन जल के हुआ ख़ाक वजूद
मेरे आँगन में वो खुर्शीद जो आया था उतर
अक्ल ख़ामोश है, बीनाई ने दम तोड़ दिया
इक ख़ला, सिर्फ़ ख़ला बिखरा है ताहद्द ए नज़र
जब तख़य्युल पे बहार आने लगे यादों की
मेरी नमनाक निगाहों में खिज़ां जाए ठहर
दिल के दामन में कहाँ तक मैं समेटूं तुझ को
फिर सिमट भी न सके, यार तू ऐसे न बिखर
फ़ासला घटता नहीं, राह कि कम होती नहीं
होता जाता है तवील और तमन्ना का सफ़र
किस तलातुम की सियाही से लिखी थी तू ने
आज तक पड़ते रहे हैं मेरी क़िस्मत में भंवर
मैं ने कब तुझ से कहा था कि तिजारत है गुनाह
अब सर ए आम तो जज़्बात को नीलाम न कर
ख़ून से सींचा है, हसरत से सँवारा है इसे
कितना “मुमताज़” लगे मेरी तबाही का समर
खुर्शीद-सूरज, बीनाई-दृष्टि, ख़ला-खाली जगह, ता हद्द ए नज़र-दृष्टि
की सीमा तक, तख़य्युल-ख़याल, नमनाक-भीगी हुई, खिज़ां-पतझड़, ज़ेर ए क़दम-क़दमों
के नीचे, शम्स ओ
कमर-सूरज और चाँद,
तवील-लंबा, तलातुम-समंदर की हलचल, तिजारत-व्यापार, मुमताज़ – अनोखा, समर – फल
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