परिंदे अपने ख़्वाबों के तो मुस्तक़बिल में रहते हैं
परिंदे अपने ख़्वाबों के तो मुस्तक़बिल में रहते हैं क़दम राहों पे लेकिन वलवले मंज़िल में रहते हैं मुक़द्दर खेल कितने खेलता है हम से , देखो तो हमीं हल करते हैं मुश्किल हमीं मुश्किल में रहते हैं निगाहों की हरारत से भी जल जाता है हर पर्दा छुपेंगे किस तरह वह जो नज़र के तिल में रहते हैं गुनह ख़ुद अपने होने की गवाही देने लगता है लहू के दाग़ तो अक्सर कफ़-ए-क़ातिल में रहते हैं अगर हम ही न हों तो ज़ीस्त किस को आज़माएगी हमारे हौसले भी तो यहाँ हासिल में रहते हैं इन्हें भी क़त्ल करने का अमल सोचेंगे फिर कोई अगर अरमान कुछ बाक़ी दिल-ए-बिस्मिल में रहते हैं अमूमन जान दे कर भी किनारा पा ही लेती है शिकस्ता नाव के टुकड़े दबे साहिल में होते हैं तलब इंसाफ़ की बिलकुल बजा है , सोच लो लेकिन यहाँ “मुमताज़” क़ातिल भी छुपे आदिल में रहते हैं parinde apni khwaaboN ke to mustaqbil meN rahte haiN qadam raahoN pe lekin walwale manzil meN rahte haiN muqaddar khel kitne khelta hai ham se, dekho to hameeN hal karte haiN mushkil, hameeN mushkil meN rahte haiN nigaahoN kee hara