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ये दिल इक बार फिर तेरी गली का रास्ता ढूँढे

ये दिल इक बार फिर तेरी गली का रास्ता ढूँढे दयार-ए-अजनबी में दर ब दर इक आशना ढूँढे किसी तपते हुए सहरा से गुज़रे हो गई मुद्दत तो ये दर्द आशना दिल पाँव में अब आबला ढूँढे ख़ुलूस , अख़्लाक़ , चाहत की हक़ीक़त देख ली जब से दिल-ए-तन्हा मोहब्बत के लिए इक आईना ढूँढे ये आईना भी अब धुंधला गया है गर्द-ए-वहशत से कहाँ से हमनवा , हमराज़ कोई बारहा ढूँढे मोहब्बत तर्क की , दिल से मगर “ मुमताज़ ” है बेबस ये दिल अब भी तेरी जानिब से कोई राब्ता ढूँढे दयार – शहर , आशना – परिचित , आबला – छाला , ख़ुलूस – सच्चाई , , अख़्लाक़ – अच्छा बर्ताव , हमनवा – जिससे बात कर सकें , हमराज़ – जिसको राज़ बता सकें , बारहा – बार बार , तर्क – त्याग , जानिब – तरफ़ , राब्ता – संपर्क 

मैं हूँ और एक सूना आँगन है

मैं हूँ और एक सूना आँगन है अपनी सब रौनक़ों से अनबन है बेहिसी का शदीद साया है दिल में अब दर्द है , न धड़कन है अब्र से अबके आग बरसी है अबके आया अजीब सावन है अब न टपके लहू न चोट लगे दिल है सीने में अब कि आहन है आबलापाई अब मुक़द्दर है सहरागर्दानी जो मेरा फ़न है तू है हर सू मगर नज़र से परे दरमियाँ जिस्म की ये चिलमन है तेरी रहमत से क्या गिला यारब चाक “ मुमताज़ ” का ही दामन है बेहिसी – भावशून्यता , शदीद – instance, अब्र – बादल , आहन – लोहा , आबलापाई – पाँव में छाले पड़ना , सहरागर्दानी – रेगिस्तान में भटकना , दरमियाँ – बीच में , चिलमन – पारभासी पर्दा , चाक – फटा हुआ 

एक तरही ग़ज़ल - हर किसी मोड़ पे उट्ठा कोई महशर क्यूँ है

हर किसी मोड़ पे उट्ठा कोई महशर क्यूँ है सहमा सहमा सा हर इक मोड़ पे रहबर क्यूँ है हर कोई ख़ौफ़ज़दा , हर कोई वहशत का शिकार ये तलातुम सा हर इक ज़ात के अंदर क्यूँ है ये यज़ीदों की हुकूमत है कि शैतान का शर शाहराहों पे लहूख़ेज़ ये मंज़र क्यूँ है हर इक इंसान पे शैतान का शुबहा हो जाए इस क़दर आज तअस्सुब का वो ख़ूगर क्यूँ है वो तो हर शै में छुपा है ये सभी जानते हैं “ फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदर क्यूँ है ” पाँव फैलाऊँ मैं कैसे कि न सर खुल जाए इतनी छोटी सी इलाही मेरी चादर क्यूँ है किसकी क़ुर्बानी का तालिब ये हुआ है या रब इतना “ मुमताज़ ” ग़ज़बनाक समंदर क्यूँ है महशर – प्रलय , रहबर – राह दिखाने वाला , तलातुम – लहरों के थपेड़े , शर – झगड़ा , शाहराहों पे – राजपथ पे , लहूख़ेज़ – रक्तरंजित , तअस्सुब – भेदभाव , ख़ूगर – आदी , इलाही – अल्लाह , तालिब – माँगने वाला , ग़ज़बनाक – ग़ुस्से में 

जब भी चाहा तो अज़ाबों का भरम तोड़ दिया

जब भी चाहा तो अज़ाबों का भरम तोड़ दिया एक ही लम्हे ने तक़दीर का रुख़ मोड दिया बैठे बैठे कभी हर ख़्वाब-ए-हसीं तोड़ दिया दिल के टूटे हुए टुकड़ों को कभी जोड़ दिया रतजगे चुभने लगे जब मेरी इन आँखों में मैं ने रातों के अँधेरों को कहीं छोड़ दिया 

ख़ून में हम ने भरा जोश जो दरियाओं का

ख़ून में हम ने भरा जोश जो दरियाओं का हिम्मतें लेती हैं बोसा मेरे इन पाओं का जिनको ठुकरा के गुज़रती रही क़िस्मत अक्सर पूछती है वो पता अब उन्हीं आशाओं का दिलरुबा लगते हैं ये मेरे उरूसी छाले रंग निखरा है अजब आज मेरे घाओं का है सफ़र लंबा अभी और तलातुम है शदीद हश्र क्या जाने हो क्या टूटी हुई नाओं का हौसला मुझको ले आया था तबाही की तरफ़ दोष क्या इसमें मेरे हाथ की रेखाओं का अब खटकने लगे काँटों की तरह वो रिश्ते फ़ासला शहरों से कितना है बढ़ा गाओं का राहतों से ये दिल उकताने लगा है अब तो दर्द में भी है नशा सैकड़ों सहबाओं का   वक़्त ऐसा भी कभी आया है मुमताज़ कि फिर धूप ने माना है एहसान घनी छाओं का  बोसा – चुंबन , दिलरुबा - दिल चुराने वाले , उरूसी – लाल रंग के , तलातुम – लहरों के थपेड़े , शदीद – तेज़ , सहबाओं का – शराबों का  

गीत – दर्द के दीप जले

दर्द के दीप जले हमसफ़र छोड़ चले हम को जीना है मगर जब तलक साँस चले वक़्त की धूप कि ढलती जाए ज़िन्दगी है कि पिघलती जाए कोई साथी , न सहारा , न सुराग़ और ये राह कि चलती जाए कैसे तय हो ये सफ़र कब तलक कोई चले कोई जीवन का ठिकाना भी नहीं अब वो पहला सा ज़माना भी नहीं कोई जीने का बहाना भी नहीं अब तो वो दर्द पुराना भी नहीं आस आँखों से बहे मिले राहों से गले नींद भी दूर मेरी आँखों से चाँद भी दूर मेरी रातों से मेरी मेहमान है अब तारीकी और शनासाई है सन्नाटों से रौशनी होती नहीं कितनी भी रूह जले तारीकी – अँधेरा , शनासाई – पहचान 

आस्माँ तू मेरा दुश्मन क्यूँ है

आस्माँ तू मेरा दुश्मन क्यूँ है इक मेरा ही तही दामन क्यूँ है है अधूरी ख़ुशी , अधूरा ग़म ज़ीस्त में ये अधूरापन क्यूँ है हर मसर्रत से , ग़म से दूर हैं हम आज फिर दिल में ये उलझन क्यूँ है क्या ज़रूरी कि हम ही यकता हों हर बशर हम से ही बदज़न क्यूँ है सिर्फ़ तारीकी है हर सू तो फिर दिल में इक शमअ सी रौशन क्यूँ है हम तो “ मुमताज़ ” लुट के भी ख़ुश हैं फिर भी सहमा सा वो रहज़न क्यूँ है