एक तरही ग़ज़ल - हर किसी मोड़ पे उट्ठा कोई महशर क्यूँ है

हर किसी मोड़ पे उट्ठा कोई महशर क्यूँ है
सहमा सहमा सा हर इक मोड़ पे रहबर क्यूँ है

हर कोई ख़ौफ़ज़दा, हर कोई वहशत का शिकार
ये तलातुम सा हर इक ज़ात के अंदर क्यूँ है

ये यज़ीदों की हुकूमत है कि शैतान का शर
शाहराहों पे लहूख़ेज़ ये मंज़र क्यूँ है

हर इक इंसान पे शैतान का शुबहा हो जाए
इस क़दर आज तअस्सुब का वो ख़ूगर क्यूँ है

वो तो हर शै में छुपा है ये सभी जानते हैं
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदर क्यूँ है

पाँव फैलाऊँ मैं कैसे कि न सर खुल जाए
इतनी छोटी सी इलाही मेरी चादर क्यूँ है

किसकी क़ुर्बानी का तालिब ये हुआ है या रब
इतना मुमताज़ ग़ज़बनाक समंदर क्यूँ है


महशर प्रलय, रहबर राह दिखाने वाला, तलातुम लहरों के थपेड़े, शर झगड़ा, शाहराहों पे राजपथ पे, लहूख़ेज़ रक्तरंजित, तअस्सुब भेदभाव, ख़ूगर आदी, इलाही अल्लाह, तालिब माँगने वाला, ग़ज़बनाक ग़ुस्से में 

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