आस्माँ तू मेरा दुश्मन क्यूँ है
आस्माँ
तू मेरा दुश्मन क्यूँ है
इक
मेरा ही तही दामन क्यूँ है
है
अधूरी ख़ुशी, अधूरा ग़म
ज़ीस्त
में ये अधूरापन क्यूँ है
हर
मसर्रत से, ग़म से दूर हैं हम
आज
फिर दिल में ये उलझन क्यूँ है
क्या
ज़रूरी कि हम ही यकता हों
हर
बशर हम से ही बदज़न क्यूँ है
सिर्फ़
तारीकी है हर सू तो फिर
दिल
में इक शमअ सी रौशन क्यूँ है
हम
तो “मुमताज़” लुट के भी ख़ुश हैं
फिर
भी सहमा सा वो रहज़न क्यूँ है
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