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गीत - जोगन

हुई दीवानी जोगन प्रेमरस भीगा जीवन प्रेमरस भीगी लगन डोले मगन भीगा है मन रे नाम पिया का बोले धड़कन रे इश्क़ की ताल पे जज़्बात के झूमे तराने झूम कर गाए पायल गूँज उठें मुरली की ताने झननन नाचे जोगन अपनी सुध बुध से अनजानी ऐसी बदनाम हुई अपने प्रीतम की दीवानी बढ़ी जब दिल की तपन प्रेम में डूबा जीवन प्रीत कब ऐसी पले रीत कहाँ ऐसी चले रे पी जाए विष का प्याला जोगन रे दिल में अनोखी टीस उठी इक दर्द उठा अंजाना अब तो पराया हो बैठा है हर जाना पहचाना हर मस्ती में एक तलातुम , जज़्बों में मैख़ाना ऐसा उठा जज़्बात का तूफ़ाँ डूबा दिल दीवाना इश्क़ ने पहना जुनूँ बेकली में है सुकूँ जोश में आया है ख़ूँ छाया फ़ुसूँ दिल है निगूँ रे जज़्बों का मतवाला नर्तन रे आँखें प्यासी , लब हैं तशना , दिल महबूब का ख़्वाहाँ मुश्किल टेढ़ी मेढ़ी राहें इश्क़ नहीं है आसाँ तोड़ दे हर ज़ंजीर गिरा दे अब दीवार-ए-ज़िन्दाँ जाग उठा हर दर्द पुराना जाग उठा हर अरमाँ धो दिया था वक़्त ने जो वो निशाँ फिर जाग उठा बेकस-ओ-बेबस वो जज़्बा नातवाँ फिर जाग उठा दिल से इक आवाज़ उट्ठी सोज़-ए-जाँ फिर जाग उठा

मैं कि शायर हूँ, है अंदाज़ निराला मेरा

बिखरा करता है हर इक दिल में उजाला मेरा मैं कि शायर हूँ , है अंदाज़ निराला मेरा राह कोई न मिली उसको मेरी जानिब की कितना मजबूर हुआ चाहने वाला मेरा दर्द अब हद से सिवा होने लगा है दिल में अब तो रह रह के तपक जाता है छाला मेरा बेनियाज़ी पे असर कोई तो होगा उसकी अर्श को जा के हिला आया है नाला मेरा रूह प्यासी है , जिगर ज़ख़्मी है , दिल बोसीदा अक्स क़िस्मत ने भी क्या ख़ूब है ढाला मेरा ऐसी नाख़्वांदा इबारत थी , पढ़ा कुछ न गया जब नजूमी ने कभी फ़ाल निकाला मेरा नज़्र क्या क्या ना किए रंज-ओ-ग़म-ओ-महरूमी उस ने “ मुमताज़ ” कहा कोई ना टाला मेरा जानिब – तरफ़ , तपक – टीस , बेनियाज़ी – बेपरवाई (अल्लाह की एक ख़ासियत) , अर्श – सातवाँ आसमान , बोसीदा – टूटने फूटने के क़रीब , नाख़्वांदा – अपठनीय , नजूमी – ज्योतिषी , फ़ाल – भविष्यफल , नज़्र – तोहफ़ा

हम अपने आप को भी खो चुके मंज़िल की काविश में

हम अपने आप को भी खो चुके मंज़िल की काविश में यक़ीनन कोई तो होगी कमी अपनी ही कोशिश में तड़प उठता था हर आहट पे दिल , वो भी ज़माना था वो जज़्बा जाने कब का जल चुका रंजिश की आतिश में तरस खा कर हमारा हाल तो वो पूछ लेते हैं मज़ा क्या ख़ाक आता है ? ज़बरदस्ती की पुर्सिश में अगर जज़्बा हो कामिल , मंजिलें ख़ुद पास आती हैं पलट जाते हैं मुस्तक़बिल नज़र की एक जुम्बिश में तलब इक आरज़ू की दर ब दर हम को फिराती है मुक़द्दर भी रहा शामिल हमेशा दिल की साज़िश में पहन कर जिस्म माज़ी सामने आने लगा है अब न जाने कितने पैकर बन रहे हैं आज बारिश में मिटे जाते हैं सारे नक्श अब तो हाफ़िज़े से भी जली जाती हैं उम्मीदें मह ए कामिल की ताबिश में तमन्ना की बलंदी सर निगूं होने नहीं पाई अना का रंग शामिल था मेरी "मुमताज़" ख़्वाहिश में काविश- खोज , जज़्बा- भावना , रंजिश की आतिश- शत्रुता की आग , पुर्सिश- हाल पूछना , कामिल- सम्पूर्ण , मुस्तक़बिल- भविष्य , जुम्बिश- हिलना , माज़ी-भूतकाल , पैकर- आकार , नक्श- निशान , हाफ़िज़े से- याद से , मह-ए-कामिल-पूरा चाँद , ताबिश- चमक , तमन्ना-

जुनून

जान ब लब गुस्ताख़ इरादे आज हर इक दीवार गिरा दे दिल को जुनूँ में मस्त बना दे इश्क़ की ख़ातिर ख़ुद को मिटा दे पी ले ज़हर महबूब की ख़ातिर मिट जाए मन्सूब की ख़ातिर इश्क़ का जज़्बा काम आ जाए आज लबों तक जाम आ जाए बेख़ुद हो कर रक़्स-ए-जुनूँ हो बेताबी में दिल को सुकूँ हो सारा ज़माना , सारी ख़ुदाई दिल की हुकूमत में है समाई मस्त-ए-मोहब्बत शाह-ए-ज़माना इश्क़ की दौलत दिल का ख़ज़ाना                  ज़ख़्म को गुल अंदाम बना दे दर्द को तू एहराम बना दे रौशन हो जाएँ दो आलम ऐसी तू इक शमअ जला दे जिस में फ़ना हो आलम सारा ऐसा तू इक हश्र उठा दे हस्ती को उल्फ़त पे मिटा कर हस्ती की तक़दीर बना दे जान ब लब – जान हथेली पर रखना , गुस्ताख़ – उद्दंड , मन्सूब – जिस से संबंध हो , रक़्स-ए-जुनूँ – पागलपन का नाच , गुल अंदाम – फूल के रंग का , एहराम – पवित्र पोशाक , हश्र – प्रलय 

तेरी लगन लगी

ऐ इश्क़ तेरी अंगड़ाई से दिल चाक हुआ परवाने का कुछ ऐसी बढ़ी लौ शमअ का दिल ख़ाक हुआ परवाने का तेरी लगन लगी वो अगन लगी मेरा रोम रोम जपे नाम तेरा हर साँस में तेरा डेरा मेरा दिल दीवाना तेरा 

बनाता है, मिटाता है, मिटा कर फिर बनाता है

बनाता है , मिटाता है , मिटा कर फिर बनाता है मुक़द्दर रोज़ ही मुझ को नई बातें सिखाता है कभी रहबर , कभी रहज़न , कभी इक मेहरबाँ बन कर बदल कर रूप अक्सर मेरे ख़्वाबों में वो आता है कोई आवाज़ हर पल मेरा पीछा करती रहती है न जाने कौन मुझ को शब की वहशत से बुलाता है हक़ीक़त तो ये है वो जाने कब का जा चुका , फिर भी दिल अब भी ख़ैरमक़दम के लिए आँखें बिछाता है गवारा कैसे हो जाए इसे राहत मेरे दिल की जुनूँ ख़ामोश जज़्बों में नए तूफ़ाँ उठाता है हक़ाइक़ से हमेशा आरज़ू नज़रें चुराती है ख़ला में भी तसव्वर नित नए नक़्शे बनाता है चलो “ मुमताज़ ” अब खो कर भी उसको देख लेते हैं सुना तो है बुज़ुर्गों से , जो खोता है , वो पाता है रहबर – साथी , रहज़न – लुटेरा , ख़ैरमक़दम – स्वागत , हक़ाइक़ – सच्चाइयाँ , ख़ला – शून्य 

नज़र से रूह तक गया

नज़र से रूह तक गया , वो नफ़्स में उतर गया वो धड़कनों की लय में गुंथ के चारसू बिखर गया उदासियों की दीमकों ने खा लिया वजूद को मेरी किताब-ए-ज़ीस्त का वरक़ वरक़ बिखर गया जो कर रहा था गर्दिशें रगों में ख़ून से सिवा जो दिन ढला तो धीरे से वो ज्वार भी उतर गया ख़ुदा के सामने उठाए हाथ फिर खड़े हैं हम मगर वो बंदगी कहाँ , दुआओं से असर गया कहाँ वो तर्ज़-ए-गुफ़्तगू , ख़ुदी की शान क्या हुई अना का नाज़ क्या हुआ , वो बाँकपन किधर गया ये हाथ काँपते हैं क्यूँ जो हाथ से कमाँ गिरी सितमज़रीफ़ आज तू ये किस क़हर से डर गया ये ज़ख़्म ज़ख़्म ज़िन्दगी , ये रूह थी थकी थकी ज़रा सी वो नज़र उठी , हर एक ज़ख़्म भर गया ये इश्क़ का जुनूँ क़दम क़दम पे रक़्स कर चला वो सरफ़रोश दिल पे ज़िन्दगी निसार कर गया ये रंज-ओ-आह , ये फ़ुग़ाँ , गली गली ये शोर उठा वो दिल की सल्तनत का बादशाह आज मर गया ये झोंके नम हवाओं के चुभे जो आ के जिस्म में तमाम तन लरज़ उठा , हर एक ज़ख़्म उभर गया झड़ी लगी थी रात भर नगर में भी , नज़र में भी तो धुल के बारिशों में हर तरफ़ समां निखर गया जो दर ब दर थी ज़िन्दगी , है आज