हम अपने आप को भी खो चुके मंज़िल की काविश में
हम अपने आप को भी खो चुके मंज़िल की काविश में
यक़ीनन कोई तो होगी कमी अपनी ही कोशिश में
तड़प उठता था हर आहट पे दिल, वो भी ज़माना था
वो जज़्बा जाने कब का जल चुका रंजिश की आतिश में
तरस खा कर हमारा हाल तो वो पूछ लेते हैं
मज़ा क्या ख़ाक आता है? ज़बरदस्ती की पुर्सिश में
अगर जज़्बा हो कामिल, मंजिलें ख़ुद पास आती हैं
पलट जाते हैं मुस्तक़बिल नज़र की एक जुम्बिश में
तलब इक आरज़ू की दर ब दर हम को फिराती है
मुक़द्दर भी रहा शामिल हमेशा दिल की साज़िश में
पहन कर जिस्म माज़ी सामने आने लगा है अब
न जाने कितने पैकर बन रहे हैं आज बारिश में
मिटे जाते हैं सारे नक्श अब तो हाफ़िज़े से भी
जली जाती हैं उम्मीदें मह ए कामिल की ताबिश में
तमन्ना की बलंदी सर निगूं होने नहीं पाई
अना का रंग शामिल था मेरी "मुमताज़" ख़्वाहिश में
काविश- खोज, जज़्बा- भावना, रंजिश की आतिश-
शत्रुता की आग, पुर्सिश-
हाल पूछना, कामिल-
सम्पूर्ण, मुस्तक़बिल-
भविष्य, जुम्बिश-
हिलना, माज़ी-भूतकाल, पैकर- आकार, नक्श- निशान, हाफ़िज़े से- याद
से, मह-ए-कामिल-पूरा
चाँद, ताबिश-
चमक, तमन्ना-
इच्छा, बलंदी-ऊँचाई, सर निगूं- जिस का
सर झुका हुआ हो,
अना-अहम्, मुमताज़- प्रतिष्ठा प्राप्त
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