बनाता है, मिटाता है, मिटा कर फिर बनाता है
बनाता
है, मिटाता है, मिटा कर फिर बनाता है
मुक़द्दर
रोज़ ही मुझ को नई बातें सिखाता है
कभी
रहबर, कभी रहज़न, कभी इक मेहरबाँ बन कर
बदल
कर रूप अक्सर मेरे ख़्वाबों में वो आता है
कोई
आवाज़ हर पल मेरा पीछा करती रहती है
न
जाने कौन मुझ को शब की वहशत से बुलाता है
हक़ीक़त
तो ये है वो जाने कब का जा चुका, फिर भी
दिल
अब भी ख़ैरमक़दम के लिए आँखें बिछाता है
गवारा
कैसे हो जाए इसे राहत मेरे दिल की
जुनूँ
ख़ामोश जज़्बों में नए तूफ़ाँ उठाता है
हक़ाइक़
से हमेशा आरज़ू नज़रें चुराती है
ख़ला
में भी तसव्वर नित नए नक़्शे बनाता है
चलो
“मुमताज़” अब खो कर भी उसको देख लेते हैं
सुना
तो है बुज़ुर्गों से, जो खोता है, वो पाता है
रहबर
–
साथी, रहज़न – लुटेरा, ख़ैरमक़दम – स्वागत, हक़ाइक़ – सच्चाइयाँ, ख़ला – शून्य
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