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तेरी लगन लगी

ऐ इश्क़ तेरी अंगड़ाई से दिल चाक हुआ परवाने का कुछ ऐसी बढ़ी लौ शमअ का दिल ख़ाक हुआ परवाने का तेरी लगन लगी वो अगन लगी मेरा रोम रोम जपे नाम तेरा हर साँस में तेरा डेरा मेरा दिल दीवाना तेरा 

बनाता है, मिटाता है, मिटा कर फिर बनाता है

बनाता है , मिटाता है , मिटा कर फिर बनाता है मुक़द्दर रोज़ ही मुझ को नई बातें सिखाता है कभी रहबर , कभी रहज़न , कभी इक मेहरबाँ बन कर बदल कर रूप अक्सर मेरे ख़्वाबों में वो आता है कोई आवाज़ हर पल मेरा पीछा करती रहती है न जाने कौन मुझ को शब की वहशत से बुलाता है हक़ीक़त तो ये है वो जाने कब का जा चुका , फिर भी दिल अब भी ख़ैरमक़दम के लिए आँखें बिछाता है गवारा कैसे हो जाए इसे राहत मेरे दिल की जुनूँ ख़ामोश जज़्बों में नए तूफ़ाँ उठाता है हक़ाइक़ से हमेशा आरज़ू नज़रें चुराती है ख़ला में भी तसव्वर नित नए नक़्शे बनाता है चलो “ मुमताज़ ” अब खो कर भी उसको देख लेते हैं सुना तो है बुज़ुर्गों से , जो खोता है , वो पाता है रहबर – साथी , रहज़न – लुटेरा , ख़ैरमक़दम – स्वागत , हक़ाइक़ – सच्चाइयाँ , ख़ला – शून्य 

नज़र से रूह तक गया

नज़र से रूह तक गया , वो नफ़्स में उतर गया वो धड़कनों की लय में गुंथ के चारसू बिखर गया उदासियों की दीमकों ने खा लिया वजूद को मेरी किताब-ए-ज़ीस्त का वरक़ वरक़ बिखर गया जो कर रहा था गर्दिशें रगों में ख़ून से सिवा जो दिन ढला तो धीरे से वो ज्वार भी उतर गया ख़ुदा के सामने उठाए हाथ फिर खड़े हैं हम मगर वो बंदगी कहाँ , दुआओं से असर गया कहाँ वो तर्ज़-ए-गुफ़्तगू , ख़ुदी की शान क्या हुई अना का नाज़ क्या हुआ , वो बाँकपन किधर गया ये हाथ काँपते हैं क्यूँ जो हाथ से कमाँ गिरी सितमज़रीफ़ आज तू ये किस क़हर से डर गया ये ज़ख़्म ज़ख़्म ज़िन्दगी , ये रूह थी थकी थकी ज़रा सी वो नज़र उठी , हर एक ज़ख़्म भर गया ये इश्क़ का जुनूँ क़दम क़दम पे रक़्स कर चला वो सरफ़रोश दिल पे ज़िन्दगी निसार कर गया ये रंज-ओ-आह , ये फ़ुग़ाँ , गली गली ये शोर उठा वो दिल की सल्तनत का बादशाह आज मर गया ये झोंके नम हवाओं के चुभे जो आ के जिस्म में तमाम तन लरज़ उठा , हर एक ज़ख़्म उभर गया झड़ी लगी थी रात भर नगर में भी , नज़र में भी तो धुल के बारिशों में हर तरफ़ समां निखर गया जो दर ब दर थी ज़िन्दगी , है आज

ज़िन्दगी वीराँ खंडर हो जैसे...बचपन की एक ग़ज़ल

ज़िन्दगी वीराँ खंडर हो जैसे दिल , कि गिर्दाब-ए-भँवर हो जैसे इक ख़ला जो न किसी तौर भरे ज़हन है ये कि सिफ़र हो जैसे दिल के तूफ़ाँ की शबाहत ले कर आँख में उमड़ा बहर हो जैसे झिलमिलाता नज़र में वो क़तरा दामन-ए-शब का गोहर हो जैसे याद कुछ इस अदा से आती है तेरा ख़्वाबों में गुज़र हो जैसे प्यार का नश्शा अजब है “ मुमताज़ ” धीमा धीमा सा सहर हो जैसे शबाहत – एकरूपता , बहर – समंदर , क़तरा – बूँद , गोहर – मोती , सहर – जादू 

रूह है बेहिस, आँखें वीराँ, दिल एहसास से ख़ाली है

रूह है बेहिस , आँखें वीराँ , दिल एहसास से ख़ाली है इस रुत में हर पेड़ बरहना , बिखरी डाली डाली है नफ़रत , आँसू , मक्र-ओ-छलावे , पी जाते हैं हँसते हुए जीने की इस दौर में हमने ये तरकीब निकाली है ख़ुशियाँ , चाहत , सिद्क़-ओ-मोहब्बत , ज़ब्त की दौलत दिल में थी इन जज़्बात की गलियों में दिल अपना आज सवाली है ये भी इमारत एक न इक दिन सीना तान खड़ी होगी जब्र की इस बस्ती में प्यार की नींव जो हमने डाली है याद ने दिल के दरवाज़े पर चुपके से जब दस्तक दी होंठ हँसे , आँखें छलकीं , ये सहर भी कितनी काली है आज का हर मंज़र है सुनहरा हर इक ज़र्रा रौशन है आज मुक़द्दर की धरती पर चारों तरफ़ हरियाली है जब सब कुछ है पास हमारे फिर ये ख़ला सा कैसा है अब ख़्वाबों के राजमहल का कौन सा कोना ख़ाली है आज सुख़न की रीत नई है , आज अदब आवारा है फ़िक्र तही इब्न-ए-आदम की और लबों पर गाली है इस बस्ती में भूख का डेरा और हुकूमत प्यासी है देश के लीडर कहते हैं , अब चारों तरफ़ ख़ुशहाली है वक़्त गया “ मुमताज़ ” वो जब मुफ़्लिस ने महल के देखे ख़्वाब आज के दौर में पेट भरा हो ये भी पुलाव ख़याली

मदावा-ए-दिल-ओ-जान-ओ-नज़र थी जिसकी हर ख़ूबी

मदावा-ए-दिल-ओ-जान-ओ-नज़र  थी  जिसकी  हर  ख़ूबी तसव्वुर  में  बसा  है  आज  तक  वो  जान -ए -महबूबी चलो  अच्छा  हुआ , इक  आस  की  ज़ंजीर  तो  टूटी शिकस्ता  नाव  तूफाँ से  लड़ी , साहिल  प्  आ  डूबी जो  निस्बत  मौज  से  थी , साहिलों  से  भी  वही  रग़बत न  हम  को  इल्म  था , साहिल  से  मौजों  की  है  मंसूबी फ़क़त  इक  लम्हा  काफ़ी है  मुक़द्दर  के  पलटने  को कभी  भटके  सराबों  में , कभी  मौजों  से  जाँ ऊबी वो  जो  दिल  का  मकीं  था , आजकल  महलों  में  रहता  है न  रास  आया  उसे  खंडर , तिजारत  उस  की  थी  ख़ूबी सफ़र  सहरा  ब  सहरा  था , तो  फिर  आसान  था  यारो समंदर  के  तलातुम  से  जो  खेले , मौज  ले  डूबी करें  अब  तर्क  ए  उल्फ़त , ये  मोहब्बत  निभ  न  पाएगी न  तुम  में  ज़ोर-ए-यज़दानी , न  हम  में  सब्र-ए-अय्यूबी तेरे  इस  इल्तेफ़ात-ए-नारसा तक  कौन  पहुंचेगा न  हम  में  हौसला  इतना , न  तेरा  इश्क़ मरऊबी वो  जल्वा , एक  वो  जल्वा , जो  मस्ताना  बना  डाले निगाह-ए-दीद  का  मोहताज  है  वो  जान-ए-महबूबी वही  "मुमताज़" जिस  ने  तुम 

हर अदा हम तो ब अंदाज़-ए-जुदा रखते हैं

हर अदा हम तो ब अंदाज़-ए-जुदा रखते हैं ऐब ये सब से बड़ा है कि वफ़ा रखते हैं हर नए ज़ख़्म को सर आँखों पे रक्खा है सदा दर्द सीने में तलब से भी सिवा रखते हैं मा ’ रेका माना है दुश्वार , मगर हम भी तो दिल में तूफ़ान , निगाहों में बला रखते हैं कितनी तारीकियाँ सीने में छुपा कर भी हम हर अँधेरे में तबस्सुम की ज़िया रखते हैं हर नफ़स एक अज़ीयत है तो धड़कन है वबाल एक इक साँस में सौ दर्द छुपा रखते हैं क्या कहा ? आपको हम से है अदावत ? साहब जाइए जाइए , हम भी तो ख़ुदा रखते हैं बात की बात में लड़ने पे हुए आमादा तीर हर वक़्त जो चिल्ले पे चढ़ा रखते हैं जाने कब उसकी कोई याद चली आए यहाँ दिल का दरवाज़ा शब-ओ-रोज़ खुला रखते हैं ख़ैरमक़दम न किया हमने उम्मीदों का कभी आरज़ूओं को तो हम दर पे खड़ा रखते हैं हम सा दीवाना भी “ मुमताज़ ” कोई क्या होगा हर तबाही को कलेजे से लगा रखते हैं ब अंदाज़-ए-जुदा – अलग अंदाज़ में , तलब – माँग , मा ’ रेका – जंग , तारीकियाँ – अँधेरा , तबस्सुम – मुस्कराहट , ज़िया – रौशनी , नफ़स – साँस , अज़ीयत – यातना , वबाल – मुसीबत , अदावत