ज़िन्दगी वीराँ खंडर हो जैसे...बचपन की एक ग़ज़ल
ज़िन्दगी
वीराँ खंडर हो जैसे
दिल, कि गिर्दाब-ए-भँवर
हो जैसे
इक
ख़ला जो न किसी तौर भरे
ज़हन
है ये कि सिफ़र हो जैसे
दिल
के तूफ़ाँ की शबाहत ले कर
आँख
में उमड़ा बहर हो जैसे
झिलमिलाता
नज़र में वो क़तरा
दामन-ए-शब
का गोहर हो जैसे
याद
कुछ इस अदा से आती है
तेरा
ख़्वाबों में गुज़र हो जैसे
प्यार
का नश्शा अजब है “मुमताज़”
धीमा
धीमा सा सहर हो जैसे
शबाहत
–
एकरूपता, बहर – समंदर, क़तरा – बूँद, गोहर – मोती, सहर – जादू
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