Posts

आओ कुछ देर रो लिया जाए

आओ कुछ देर रो लिया जाए दिल के दाग़ों को धो लिया जाए आज ज़हनों की इन ज़मीनों पर प्यार का बीज बो लिया जाए वो लहू आँख से जो टपका है रग-ए-जाँ में पिरो लिया जाए ज़ुल्म का हर नफ़स पे पहरा है अब तो ख़ामोश हो लिया जाए है थकन हद से ज़ियादा “ मुमताज़ ” हो जो फ़ुरसत तो सो लिया जाए 

ता उम्र सफ़र कर के ये हमने कमाया है

ता उम्र सफ़र कर के ये हमने कमाया है दो क़तरे हैं शबनम के , इक धूप का साया है उल्फ़त हो कि नफ़रत हो , तस्वीर के दो रुख़ हैं दम तोड़ती उल्फ़त ने नफ़रत को जगाया है जब दर्द की शिद्दत से दम घुटने लगा यारो तब जा के सिला हमने इस ज़ीस्त का पाया है गुज़रा है गरां हम पर एहबाब का हर एहसाँ इस ज़िंदगी में हम पर वो वक़्त भी आया है तनहाई का वो आलम आँसू भी नहीं साथी बेगानगी की हद है , हर दर्द पराया है पाएँ तो कहीं राहत , छूटें तो कशाकश से हस्ती में तलातुम ने इक क़हर उठाया है जागी जो कोई ख़्वाहिश तो मेरी तबाही का इस दिल ने हमें अक्सर एहसास दिलाया है परवाज़ की ख़्वाहिश थी और दिल में भी हिम्मत थी यूँ बारहा ख़ुद हमने पंखों को जलाया है अपना ही रहा चर्चा हर बज़्म में हर जानिब “ मुमताज़ ” तबाही का जब तज़किरा आया है ता उम्र – उम्र भर , क़तरे – बूँदें , सिला – बदला , ज़ीस्त – ज़िन्दगी , गरां – भारी , एहबाब – प्यारे लोग , कशाकश – कश्मकश , तलातुम – तूफ़ान , तज़किरा – ज़िक्र 

हवा अब रुख़ बदलती है

गुलों ने रंग बदले हैं  बहार अब हाथ मलती है संभल जाओ चमन वालों , हवा अब रुख़ बदलती है जिगर का ख़ून होता है तो इक हसरत निकलती है तेरी ये मुंतज़र साअत बड़ी मुश्किल से टलती है तख़य्युल की जबीं पर जब तमन्ना रक़्स करती है तसव्वर की बलन्दी को नई परवाज़ मिलती है वो जिसकी रौशनी से दिल का हर ज़र्रा सितारा था जिगर में तेरी उल्फ़त की वो आतिश अब भी जलती है सुख़न की वादियों में फिर तेरा पैकर भटकता है सुनी है फिर तेरी आहट , तबीयत फिर संभलती है तसव्वर रोज़ दिल की उस गली की सैर करता है कि यादों के नशेमन की ये खिड़की रोज़ खुलती है हज़ारों ख़्वाब जाग उठते हैं इन वीरान आँखों में तेरी बाहों में जानाँ दिल की हर ख़्वाहिश पिघलती है जला कर ख़ाक करती जा रही है हर घड़ी मुझ को ये कैसी आग सी “ मुमताज़ ” इस सीने में जलती है  

नज़्म – इन्तेसाब

ये बेकल तमन्ना ये बेताब ख़्वाहिश ये दिल में दबी मीठी मीठी सी आतिश घनी ज़ुल्फ़ का रेशमी ये अंधेरा मेरी सारी शामें , मेरा हर सवेरा ये लरज़ाँ से लब , ये निगाहों की मस्ती ये हसरत , ये एहसास की बुतपरस्ती ये ज़ुल्फ़ों के साए , ये पलकों की चिलमन ये लग़्ज़िश ख़यालों की , ये दिल की धड़कन ये सब जान-ए-जानाँ तुम्हारे लिए हैं तुम्हारे लिए दिल धड़कता है मेरा ये आरिज़ , ये लब , ये बदन , ये निगाहें तुम्हारे लिए मुंतज़िर हैं ये बाहें मोहब्बत की हर दास्ताँ भी तुम्हारी ये दिल भी तुम्हारा , ये जाँ भी तुम्हारी  इन्तेसाब – समर्पण , आतिश – आग , लरज़ाँ – काँपते हुए , बुतपरस्ती – मूर्ति पूजा , चिलमन – पारभासी पर्दा , लग़्ज़िश – लड़खड़ाना , आरिज़ – गाल , मुंतज़िर – इंतज़ार में 

लुट रही है वक़्त के हाथों मता ए ज़िन्दगी

लुट रही है वक़्त के हाथों मता ए ज़िन्दगी लम्हा लम्हा कटती जाती है सज़ा ए ज़िन्दगी है अज़ीअत नाक ये , फिर भी है कितनी दिलरुबा लोग ख़ुद को बेच देते हैं बराए ज़िन्दगी ख़त्म होती ही नहीं मुद्दत हयात ए ख़ाम की कौन देता जाता है मुझ को दुआ ए ज़िन्दगी हादसा दर हादसा ये नाउम्मीदी का सफ़र किस क़दर मुझ पर मुसलसल ज़ुल्म ढाए ज़िन्दगी मेहरबाँ , नामेहरबाँ , बद्ज़न , कभी गुस्ताख़ भी दिल को अब भाती नहीं कोई अदा ए ज़िन्दगी कैसी कोशिश , क्या इरादे , है मेरी औक़ात क्या करना तो होगा वही , जो है रज़ा ए ज़िन्दगी हर नफ़स बेचैन , हर धड़कन अज़ाबों का सफ़र लम्हा लम्हा , दम ब दम मुझ को मिटाए ज़िन्दगी नाम से रिश्तों के अब "मुमताज़" घबराता है दिल क़र्ज़ रिश्तों का भला कब तक चुकाए ज़िन्दगी    मता ए ज़िन्दगी-ज़िन्दगी की पूँजी , अज़ीअत नाक-तकलीफदेह , बराए ज़िन्दगी-ज़िन्दगी के लिए , हयात ए ख़ाम- बेकार ज़िन्दगी , मुसलसल-लगातार , रज़ा ए ज़िन्दगी-ज़िन्दगी की मर्ज़ी , नफ़स-सांस , अज़ाबों का सफ़र-यातनाओं का सफ़र

ये दौर-ए-इंतेख़ाब है

मिली हैं ज़र्रीं नद्दियाँ , दो आब पर शबाब है हैं हुक्मरान सर नगूँ , ये दौर-ए-इंतेख़ाब है सियासतें ये वोट की , करामतें ये नोट की बरसता इल्तेफ़ात है , शराब है , कबाब है झुकाए सर को सब खड़े हैं सद्र-ए-आला के क़रीं ये कुर्सियों का मो ’ जिज़ा कि लब पे जी जनाब है न आना इस फ़रेब में ये जानलेवा जाल है सँभलना बुलबुलो ज़रा , शिकार पर उक़ाब है करें तो अब करें भी क्या मिले न कोई रास्ता है चारों सिम्त बेबसी अवाम में इताब है तिजोरियों में कैश है , ये रिश्वतों का ऐश है चमक रही हैं सूरतें न शर्म न हिजाब है हैं हुक्मरान बेहया तो सद्र काठ का चुग़द गिला करें तो किस से हम कि वक़्त ही ख़राब है ज़र्रीं – सुनहरी , दो आब – दो हिस्सों में बंटी हुई धारा , हुक्मरान – राज करने वाले , सर नगूँ – सर झुकाए हुए , दौर-ए-इंतेख़ाब - चुनाव का वक़्त , इल्तेफ़ात – मेहरबानी , सद्र-ए-आला – आला कमान , मो ’ जिज़ा – चमत्कार , अवाम – जनता , इताब – ग़ुस्सा , हिजाब – शर्म , सद्र – अध्यक्ष , चुग़द – उल्लू , गिला – शिकायत 

जो पहले थी, सो अब भी है

ग़रीबी और बेकारी , जो पहले थी , सो अब भी है वही जीने की लाचारी , जो पहले थी , सो अब भी है भरी नोटों से अलमारी जो पहले थी , सो अब भी है वही लीडर की बटमारी , जो पहले थी , सो अब भी है कभी सुरसुर , कभी खुरखुर , कभी फुर्री , कभी सीटी वो खर्राटों की बीमारी जो पहले थी सो अब भी है कभी भड़भड़ , कभी तड़तड़ , कभी टुइयाँ , कभी ठुस्की वो बदहज़्मी की बमबारी जो पहले थी सो अब भी है वही ऐश और वही इशरत , वही स्विस बैंक के खाते वो कुछ लोगों की मक्कारी जो पहले थी सो अब भी है है लक़दक़ पैरहन , लेकिन है दिल कालिख से भी काला वही उनकी सियहकारी , जो पहले थी , सो अब भी है वही हैं पार्टियाँ दो चार बस ले दे के चोरों की वही वोटर की लाचारी , जो पहले थी , सो अब भी है वही कुर्सी की खेंचातान , वो तादाद की बाज़ी वो मोहरों की ख़रीदारी जो पहले थी सो अब भी है तअस्सुब मिट चुका , अदना ओ आला सब बराबर हैं मगर परजा की त्योहारी जो पहले थी , सो अब भी है कभी जम्हूरियत का इक सुनहरा ख़्वाब देखा था मगर ताबीर तो भारी जो पहले थी सो अब भी है निज़ाम-ए-स्याह में चौपट