ये दौर-ए-इंतेख़ाब है
मिली
हैं ज़र्रीं नद्दियाँ, दो आब पर शबाब है
हैं
हुक्मरान सर नगूँ, ये दौर-ए-इंतेख़ाब है
सियासतें
ये वोट की, करामतें ये नोट की
बरसता
इल्तेफ़ात है, शराब है, कबाब है
झुकाए
सर को सब खड़े हैं सद्र-ए-आला के क़रीं
ये
कुर्सियों का मो’जिज़ा कि लब पे जी जनाब है
न
आना इस फ़रेब में ये जानलेवा जाल है
सँभलना
बुलबुलो ज़रा, शिकार पर उक़ाब है
करें
तो अब करें भी क्या मिले न कोई रास्ता
है
चारों सिम्त बेबसी अवाम में इताब है
तिजोरियों
में कैश है, ये रिश्वतों का ऐश है
चमक
रही हैं सूरतें न शर्म न हिजाब है
हैं
हुक्मरान बेहया तो सद्र काठ का चुग़द
गिला
करें तो किस से हम कि वक़्त ही ख़राब है
ज़र्रीं
–
सुनहरी, दो आब – दो हिस्सों में बंटी हुई
धारा, हुक्मरान – राज करने वाले, सर नगूँ – सर झुकाए हुए, दौर-ए-इंतेख़ाब
- चुनाव का वक़्त, इल्तेफ़ात – मेहरबानी, सद्र-ए-आला – आला कमान, मो’जिज़ा – चमत्कार, अवाम – जनता, इताब – ग़ुस्सा, हिजाब – शर्म, सद्र – अध्यक्ष, चुग़द – उल्लू, गिला – शिकायत
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