ता उम्र सफ़र कर के ये हमने कमाया है
ता
उम्र सफ़र कर के ये हमने कमाया है
दो
क़तरे हैं शबनम के, इक धूप का साया है
उल्फ़त
हो कि नफ़रत हो, तस्वीर के दो रुख़ हैं
दम
तोड़ती उल्फ़त ने नफ़रत को जगाया है
जब
दर्द की शिद्दत से दम घुटने लगा यारो
तब
जा के सिला हमने इस ज़ीस्त का पाया है
गुज़रा
है गरां हम पर एहबाब का हर एहसाँ
इस
ज़िंदगी में हम पर वो वक़्त भी आया है
तनहाई
का वो आलम आँसू भी नहीं साथी
बेगानगी
की हद है, हर दर्द पराया है
पाएँ
तो कहीं राहत, छूटें तो कशाकश से
हस्ती
में तलातुम ने इक क़हर उठाया है
जागी
जो कोई ख़्वाहिश तो मेरी तबाही का
इस
दिल ने हमें अक्सर एहसास दिलाया है
परवाज़
की ख़्वाहिश थी और दिल में भी हिम्मत थी
यूँ
बारहा ख़ुद हमने पंखों को जलाया है
अपना
ही रहा चर्चा हर बज़्म में हर जानिब
“मुमताज़” तबाही का जब तज़किरा आया है
ता
उम्र – उम्र भर, क़तरे – बूँदें, सिला – बदला, ज़ीस्त – ज़िन्दगी, गरां – भारी, एहबाब – प्यारे लोग, कशाकश – कश्मकश, तलातुम – तूफ़ान, तज़किरा – ज़िक्र
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