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राह सुनसान है ताहद्द-ए-नज़र

राह सुनसान है ताहद्द-ए-नज़र और ये ज़ीस्त का तवील सफ़र बारहा टूट कर बिखरती है ज़िन्दगी ऐसे भी जाती है सँवर दर ब दर क्यूँ हयात फिरती है कुछ पता है हमें न कोई ख़बर आबले भर चले हैं अब शायद दिल-ए-आवारा चला आज किधर कैसा आसेब लग गया इस को कितना मसहूर है ये दिल का खंडर और जाएगा ये ख़याल कहाँ एक तू , एक तेरी राहगुज़र चुभते रहते हैं मेरे तलवों में दूर तक बिखरे हुए लाल-ओ-गोहर आँख के सामने है अब मंज़िल अब तो “ मुमताज़ ” है तमाम सफ़र   ताहद्द-ए-नज़र – नज़र की सीमा तक , ज़ीस्त – जीवन , तवील – लंबा , बारहा – बार बार , हयात – जीवन , आबले – छाले , आसेब – भूतबाधा , मसहूर – जादू , लाल-ओ-गोहर – लाल और मोती 

एक सुनहरी दुनिया देखी ख़्वाबों की इल्हामी में

एक सुनहरी दुनिया देखी ख़्वाबों की इल्हामी में आँख खुली तो सामने सच था , रोते थे नाकामी में आज मोहब्बत बिकती है इस दुनिया के बाज़ारों में चलो लगाएँ बोली हम भी प्यार की इस नीलामी में इश्क़ में लाखों ग़म हैं माना , ज़िल्लत है , रुसवाई है सारे आलम की राहत है इस मीठी बदनामी में सारी उम्र की क़ीमत दे कर भी ये सौदा सस्ता था हम यूँ ही अनमोल हो गए , बिक तो गए बेदामी में एक तमन्ना के हाथों हम जाने कब से लुटते हैं दो पल की राहत पाने को इस दौर-ए-हंगामी में जाने बेताबी का कैसा दौर ये हैं “ मुमताज़ ” आया उलझन में दिन बीत रहे हैं , रातें बेआरामी में इल्हामी – आकाशवाणी 

एक पुरानी ग़ज़ल - करप्शन मिटने वाला है

कहीं चोरी , कहीं डाका , हर इक जानिब घोटाला है चलो अब आ गई बारी , करप्शन मिटने वाला है सभी माना धुले हैं दूध के , पर इसका क्या कीजे न वापस ला सके स्विस बैंक में जो माल डाला है हैं बेनीफ़िशियरी में कैसे कैसे आइटम देखो भतीजा है , कोई चाचा , कोई भाई है , साला है ये हसरत है किसी सूरत ज़रा बच्चे बहल जाएँ किसी मजबूर माँ ने आज फिर पानी उबाला है जो ये संसद के सेशन में बंटी है दाल जूतों में ज़रूर इस दाल में यारो कहीं तो कुछ तो काला है हमें क्या बाँट पाएंगे ये फ़ितनासाज़ बलवाई हमारे दिल में मस्जिद है , कलीसा है , शिवाला है है कोई आप , कोई आप का भी बाप निकला है कोई है कंस का मामा , कोई शैताँ की ख़ाला है बटोरा करते हैं दौलत ये दोनों हाथ से यारो कहीं “ मुमताज़ ” डोनेशन , कहीं नोटों की माला है 

ले आईं किस मक़ाम पर हमें हमारी चाहतें

ले आईं किस मक़ाम पर हमें हमारी चाहतें कहाँ गए वो रात दिन , कहाँ गईं वो राहतें ये नफरतों की सरज़मीं प् रंजिशों की बारिशें जलाती जाती हैं दिए अँधेरे में मोहब्बतें ये तपती धूप की चुभन , ये तश्नगी की इन्तहा ये सहरा ए हयात में मोहब्बतों की हाजतें पलक पलक सराब है , नफ़स नफ़स अज़ाब है ये क़तरा क़तरा ज़िन्दगी , ये दर्द ओ ग़म की इशरतें हयात जल के रह गई , वजूद भी झुलस गया ये तपते सहरा का सफ़र , मक़ाम की ये मुद्दतें मिलें तो कैसे मंजिलें , अभी सफ़र तवील है शिकस्ता पा है ज़िन्दगी , थकी थकी हैं हसरतें ये राहतों की इन्तेहा , तड़पती है हर इक ख़ुशी हमें मिटाए देती हैं हयात की इनायतें वो "नाज़ाँ" ख़्वाब ख़्वाब सा सफ़र तमाम हो गया न जाने खो गईं कहाँ वो क़ुर्बतें , वो चाहतें तश्नगी-प्यास , सहरा ए हयात- ज़िन्दगी की मरुभूमि , सराब-मृगतृष्णा , नफ़स-सांस , अज़ाब-यातना , हयात-ज़िन्दगी , शिकस्ता पा- थके हुए पाँव , क़ुर्बतें- नज़दीकियाँ

शौक़ ये आवारगी का, ज़िन्दगी की जुस्तजू

शौक़ ये आवारगी का , ज़िन्दगी की जुस्तजू दश्त-ओ-सहरा में लिए फिरती है मुझको आरज़ू कोशिशें , हिम्मत , इरादे , वक़्त के हाथों मिटे इस जेहाद-ए-ज़िन्दगी में कैसे कैसे जंगजू मरते मरते फिर से ज़िन्दा हो उठीं सौ ख़्वाहिशें दिल की इस बंजर ज़मीं पर हसरतों का ये नमू जब बढ़ी राहत क़दमबोसी को , ठोकर मार दी हमने रक्खी है हमेशा वहशतों की आबरू गर्मी-ए-एहसास से ये रूह तक तपने लगी सहरा-ए-दिल में चली क्या क्या तमन्नाओं की लू इश्क़ की पाकीज़गी महशर में काम आ जाएगी कर रहे होंगे फ़रिश्ते मेरे अश्कों से वज़ू उसका चेहरा भी ख़यालों में नज़र आता नहीं धुंध सी छाई है कैसी आज दिल के चार सू जान कर हम हार बैठे इश्क़ की बाज़ी कि यूँ हसरतें “ मुमताज़ ” हैं अब दिल हुआ है सुर्ख़रू जेहाद – संघर्ष , जंगजू – योद्धा , नमू – फलने फूलने की क्षमता , क़दमबोसी – पाँव चूमना , पाकीज़गी – पवित्रता , महशर – दुनिया का आख़िरी दिन , जब अल्लाह इंसाफ़ करेगा , वज़ू – इबादत के लिए हाथ पाँव धोना , सुर्ख़रू – विजयी 

बुझी सी राख़ में किस शय की जुस्तजू है तुझे

बुझी सी राख़ में किस शय की जुस्तजू है तुझे सियाह रात में सूरज की आरज़ू है तुझे ये रेगज़ार जो ताहद्द-ए-नज़र फैला है है हौसला तो ये सहरा भी आबजू है तुझे ये रेगज़ार की वुसअत , ये हसरतों का सराब ख़िज़ाँ में कैसी अजब ख़्वाहिश-ए-नमू है तुझे भटकता फिरता है क्यूँ ऐ दिल-ए-आवारा सिफ़त तलाश कौन सी शय की ये कू-ब-कू है तुझे निकाल लेता है ख़ुशियों में भी अश्कों का जवाज़ अजब शआर है , ग़म की ये कैसी ख़ू है तुझे ताहद्द-ए-नज़र – नज़र की हद तक , आबजू – नहर , वुसअत – फैलाव , सराब – मरीचिका , ख़िज़ाँ – पतझड़ , नमू – फलने फूलने की क्षमता , आवारा सिफ़त – आवारा मिजाज , कू-ब-कू – गली गली , जवाज़ – औचित्य , शआर – आदत , ख़ू – आदत 

बेहिसी कर्ब के सहराओं में जलती ही नहीं

बेहिसी कर्ब के सहराओं में जलती ही नहीं आरज़ू अब तो किसी तौर मचलती ही नहीं अब तो जीने की कोई राह निकलती ही नहीं अब तबीयत ये किसी तौर बहलती ही नहीं सफ़र इक दायरे में करते हैं शायद हम लोग मुद्दतें गुज़रीं प ये राह बदलती ही नहीं अपनी तक़दीर की ख़ूबी कि करूँ लाख जतन कोई तदबीर मेरे ज़हन की चलती ही नहीं रायगाँ है ये मेरा संग तराशी का हुनर जब कि ये ज़ीस्त किसी अक्स में ढलती ही नहीं रक़्स करती है हवस आज बरहना हर सू हम से अख़लाक़ की मीरास सँभलती ही नहीं सिमटा जाता है बशर अपनी ख़ुदी में “ मुमताज़ ” रिश्तों-नातों पे जमी बर्फ़ पिघलती ही नहीं बेहिसी – भावनाशून्यता , कर्ब – दर्द , रायगाँ – बेकार , ज़ीस्त – ज़िन्दगी , रक़्स – नृत्य , बरहना – नग्न , हर सू – हर तरफ़ , अख़लाक़ – सभ्यता , मीरास – विरासत , बशर – इंसान