राह सुनसान है ताहद्द-ए-नज़र
राह सुनसान है ताहद्द-ए-नज़र और ये ज़ीस्त का तवील सफ़र बारहा टूट कर बिखरती है ज़िन्दगी ऐसे भी जाती है सँवर दर ब दर क्यूँ हयात फिरती है कुछ पता है हमें न कोई ख़बर आबले भर चले हैं अब शायद दिल-ए-आवारा चला आज किधर कैसा आसेब लग गया इस को कितना मसहूर है ये दिल का खंडर और जाएगा ये ख़याल कहाँ एक तू , एक तेरी राहगुज़र चुभते रहते हैं मेरे तलवों में दूर तक बिखरे हुए लाल-ओ-गोहर आँख के सामने है अब मंज़िल अब तो “ मुमताज़ ” है तमाम सफ़र ताहद्द-ए-नज़र – नज़र की सीमा तक , ज़ीस्त – जीवन , तवील – लंबा , बारहा – बार बार , हयात – जीवन , आबले – छाले , आसेब – भूतबाधा , मसहूर – जादू , लाल-ओ-गोहर – लाल और मोती